Book Title: Dhyan Sadhna aur Siddhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 115
________________ १०४ ध्यानः साधना और सिद्धि सम्हले वह पंडित है । जो ठोकर-पर-ठोकर खाकर भी न सम्हले, वह मूर्ख है । यह मनुष्य की मूर्छा ही है कि वह पढ़ा-लिखा इंसान होने के बावजूद मूर्खता को ही दोहराता रहता है। किसी और की ठोकर और मृत्यु उस पर बेअसर होती जा रही है । मनुष्य अब बड़ा पत्थर दिल हुआ है। सिर पर उग आने वाला एक सफेद बाल भी जिसके लिए वानप्रस्थ की प्रेरणा बन जाया करता था, आज सिर ही सफेद नहीं हुआ है, आज सारा शरीर ही बुढ़ाता चला जा रहा है, फिर भी आदमी मौत से बेपरवाह है । कभी बुद्ध अपने साधकों से कहा कहते थे कि साधना में स्थिरता लाने के लिए पहले माह-दो-माह श्मशान में रह आओ, ताकि देह की मरणधर्मिता को तुम बखूबी जान ही सको । कुछ लोगों को श्मशान में विरक्ति भी उठती है । पर मशानिया वैराग्य कितने देर का ! अब तो किसी की अंत्येष्टि में शामिल होना महज एक औपचारिकता भर रह गई है। अहसास होता ही किसे है। सब जगह ‘खानापूर्ति' चल रही है। घर में दादाजी की मृत्यु हो जाती है । बेटे-पोते अग्नि-संस्कार कर आते हैं। दो-चार दिन शोक मना लेते हैं, दो-चार दिन व्यवसाय भी बंद रख लेते हैं, पर वापस जैसे थे, वैसे ही हो जाते हैं । कही कुछ घटता नहीं है । कहीं कुछ छूटता नहीं है । छूटता है तो बेचारी दादी जो कल तक मंदिर जाती थी उसका मंदिर जाना छूट जाता है। हाँ दादाजी की मृत्यु के बाद उनकी पूंजी के लिए हमने लड़ाई जरूर शुरू कर दी। दादा की संपत्ति का स्वामी कौन बने ! मनुष्य की मूढ़ता कितनी गहन है कि जो भाई आपस में लड़ रहे हैं और देख रहे हैं कि दादाजी ने भी यह संपत्ति ऐसे ही इकट्ठी की थी और वे चले गए। यह संपत्ति कोई काम न आई । नश्वर को छोड़ा, नश्वर काया को भी छोड़ा। अनश्वर-तत्त्व अनश्वर रास्ते पर चला गया और हमारा अनश्वर-तत्त्व नश्वर वस्तुओं के लिये झगड़ पड़ा। अनश्वर का नश्वर के लिए मुर्छित होना ही तो मनुष्य का अज्ञान है। दादाजी ने अपने बालकों के लिए कोई संस्कार नहीं दिया, कोई जीवन-बोध नहीं दिया, जाते हुए उन्होंने संपत्ति के नाम पर मात्र कलह और झगड़ा छोड़ा। एक पिता वह है जो बच्चों को जन्म देता है । जन्म देना तो कालचक्र का आगे बढ़ना है और संसार में पिता भी वही श्रेष्ठ माना जाता है जो अपने पीछे धन-संपत्ति छोड़ जाता है। लेकिन जिन्होंने जीवन-जगत और समाज के सभी व्यवहारों को ध्यान से पढ़ा है. वे जानते हैं कि यह धन-संपत्ति देने वाले पिता भूला दिये जाते हैं। असली पिता वही होता है जो अपने बच्चों को सही संस्कार देकर जाते हैं। संतति को जन्म देना सृष्टि-कृत्य है । संतति को संपत्ति देना पितृ-कर्त्तव्य है । संतति को संस्कार और संस्कृति का स्वामी बनाना उत्तम पुरुष का लक्षण है । वे पिता ही स्मरणीय हैं जो अपने बच्चों से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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