Book Title: Dhyan Sadhna aur Siddhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 117
________________ १०६ ध्यान : साधना और सिद्धि करता है। बौद्ध धर्म की अस्सी हजार पुस्तकें हैं । तुम्हें वे सब पढ़ भी लेनी चाहिए, लेकिन ध्यान रखना । यदि तुमने अपना स्वयं का स्वभाव और स्वरूप न पहचाना, तो तुम मेरे इस पत्र को समझ ही न पाये । ईक्यू, यही मेरी अन्तिम इच्छा है और यही मेरी ओर से तुम्हारे नाम वसीयत । ईक्यू माँ का खत पढ़कर ऐसा प्रेरित हुआ कि माँ का वह पत्र उसके संन्यास का, उसके ध्यान-मार्ग का, उसकी मुक्ति का आधार बना। उसकी माँ ने पत्र के अन्त में अपना हस्ताक्षर करके लिखा था— नॉट बॉर्न, नॉट डेड। माँ, जो न जन्मी, न मरी । 1 ईक्यू जैसे लोग जग ही जाते हैं। गौतम जैसे लोग बुद्ध बन ही जाते हैं । कहते हैं : बुद्ध के पास से एक प्रसूति से पीड़ित महिला निकली। सारथी ने बताया कि जन्म सभी का इसी तरीके से होता है । आगे देखा कि एक व्यक्ति ने जो खाया है, उसे ही उल्टी कर रहा है । बुद्ध को ताज्जुब हुआ । सारथी ने जवाब दिया कि जन्म और रोग दोनों जीवन से जुड़े हुए हैं। तभी लाठी का सहारा लेकर कोई वृद्ध जाता हुआ दिखाई दिया । बुद्ध पुनः पूछते हैं— इसे क्या हुआ ? यह लकड़ी के सहारे से क्यों चल रहा है । सारथी ने एक बार फिर कहा, जीवन में बुढ़ापा भी आता है । कहीं दूर किसी शवयात्रा को देखकर बुद्ध के मन में फिर प्रश्न जगता है । सारथी ने बताया कि इसकी मृत्यु हो गई । 1 सारथी सब जान रहा है, सभी स्थितियों को जानता है। एक ही रथ पर बुद्ध भी है और साथी भी । दोनों के सामने चार घटनाएँ घटती हैं, लेकिन एक इन सबसे अप्रभावित रहता है और दूसरा संबुद्ध हो जाता है । मूढ़ व्यक्ति, ज्ञान रखते हुए भी अपने माया के जाल में जैसा था, वैसा ही रह जाता है और दूसरा बुद्धत्व को उपलब्ध कर लेता I 1 I है । कोई दूसरे को जलता देखकर स्वयं को भी भस्मीभूत पाता है और संसार से विरक्त हो जाता है । लेकिन हम तो अपने हाथों से अपने परिजनों का अग्नि-संस्कार कर आते हैं, फिर भी मन में कोई हलचल नहीं होती । मूढ़ता बहुत भीतर तक समाई है । इसीलिए मनुष्य की मुक्ति नहीं, मृत्यु ही होती है । कहेंगे जरूर कि मुक्ति चाहिए, लेकिन कोई मुक्तिदाता मिल जाए तो उससे संसार मांगना शुरू कर देंगे । मुक्ति महज बातों में रह जाती है, भीतर तो संसार बसा है। बात तो तब बने जब, जहाँ संसार बसा है उससे भी अधिक गहरे तक मुक्ति की भावना उतरे । ऊपर रखी राख तो यों ही चढ़ती-उड़ती रहेगी, भीतर में धधक रही आग बुझे, तो बात बने 1 कहीं ऐसा तो नहीं कि मुक्तिदाता के पास भी चले गए, मगर मन की मंशाएँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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