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ध्यानः साधना और सिद्धि
मृत्यु संयोगों को तोड़ सकती है, किसी को मार नहीं सकती । हम सभी उस जीवन के संवाहक हैं, उस जीवन के स्वामी हैं, जो बार-बार मृत्यु से गुजरकर भी नहीं मरता है । जिसे अग्नि भी नहीं जला पाती यह जीवन ऐसा अखंड है । कृष्ण गीता में कहते हैं, 'अर्जुन, जिन लोगों के विरुद्ध तुम शस्त्र उठा रहे हो, तुम्हें लगता है कि तुम इनकी मृत्यु का निमित्त बनोगे, पर वास्तविकता यह है कि यह तो पहले ही मर चुके हैं।' किसी की आत्मा को तो छेदा-भेदा ही नहीं जा सकता । आत्मा तो अछेद-अभेद्य है । गिरता सदा शरीर ही है । शरीर एक-न-एक दिन गिर ही जाना चाहिए । शरीर की अमरता किस काम की। जब तक शरीर सत्प्रवृत्तियों में स्थित रहे, तब तक वह सत्य है। दुष्प्रवृत्तियों की ओर गतिशील हो चुके शरीर को तो पुनःपंच तत्त्व में खो ही देना चाहिए। अर्जुन, ये जो सामने दुष्प्रवृत्तियों के दुर्योधन खड़े हैं, ये अब आत्मवान रहे ही नहीं, ये मृत हो चुके हैं। इनका अमृत विष हो चुका है । इन्होंने अमृत को विष कर डाला है । ये तो अब मनुष्य नहीं, महज माटी के पुतले भर हो चुके हैं। ध्यान रखो, मृत्यु केवल माटी के साथ ही घटित होती है, आत्मा के साथ नहीं।
शरीर की मृत्यु भी आकस्मिक नहीं होती । जिसे हम जीवन मानते हैं, उसकी मृत्यु क्षण-क्षण घटित होती रहती है । आती हुई साँस जीवन है और जाती हुई साँस मृत्यु । मृत्यु का अर्थ है एक ऐसी अंतिम श्वास जिसके चले जाने पर दूसरी साँस भीतर न आ सके । श्वास का लेना जीवन और निकल जाना ही मृत्यु है । हम सभी की श्वासें निश्चित हैं। हम एक श्वास भी अधिक नहीं ले सकते। जो जितनी तीव्रता से श्वास-प्रश्वास कर रहा है, उसकी गिनती कम होती जा रही है। जो जितने आराम, अन्तराल से श्वास-प्रश्वास कर रहा है, उसकी आयु की रेखा दीर्घ हो जाती है । प्राणायाम से श्वास को एक सोपान दिया जाता है, एक विशिष्ट गति और स्थिति दी जाती है। श्वास के लयबद्ध और संतुलित किए जाने का नाम ही प्राणायाम है।
हम सुनते हैं प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों की दीर्घायु हुआ करती थी। सिर्फ कारण इतना-सा है कि वे संतुलित श्वास-प्रश्वास करते थे। प्राणायाम के द्वारा श्वास पर इतना अधिकार कर लेते थे कि दीर्घ जीवन के स्वामी हो जाते थे। आज भी यदा-कदा सुनने में आ जाता है कि फलाँ साधु या व्यक्ति भूमि के अंदर गड्ढे में निश्चित समय तक बंद रहने के पश्चात जीवित निकल आया। यह कैसे होता है ? ऐसे कि बंद व्यक्ति जानता है कि भीतर जितनी प्राणवायु है उसका धीरे-धीरे लम्बे समय तक प्राणायाम के द्वारा ठीक उपयोग करना।
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