Book Title: Dhyan Sadhna aur Siddhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 106
________________ जीवन जिएँ अन्तर्हृदय से गया विश्राम । हृदय-स्थल पर, वक्ष स्थल के मध्य परिसर में निमग्न होना मन को स्वस्थ करने का कीमिया सूत्र है । मनुष्य का मन विकृत है । वह उद्वेगों-संवेगों से भरा है । हृदय निर्मल है । वह सहजता-सरलता-सत्यता- शुचिता से आवेष्टित है । ९५ I अपने मन पर सवार हुआ व्यक्ति दूसरों के प्रति इन्द्रियासक्त और विकृत होता है, और हृदय-रथ पर सवार व्यक्ति दूसरे के प्रति निर्मल और श्रद्धानिष्ठ होता है मनुष्य का प्रेम जब विकृत होता है तब वह दूसरों को आहत और अपमानित करना चाहता है, लेकिन यही प्रेम जब श्रद्धा में रूपान्तरित हो जाता है तब हमारा मस्तक दूसरे के चरणों में जा झुकता है । श्रद्धा अंतर- हृदय से आती है । सम्यक् प्रेम अंतर - हृदय से निःसृत होगा । यहीं पर शांति है, यहीं पर सच्चा प्रेम, यही है करुणा का मंगल कलश, यहीं है आनंद का अनुष्ठान और यहीं बजता है भक्ति का करताल । मनुष्य धनवान हो गया, बुद्धिमान हो गया, बस नहीं हो पाया तो हृदयवान । कल मुझसे कोई पूछ रहा था कि मनुष्य की संवेदनशीलता क्यों मरती जा रही है। सच्चाई यह है कि मनुष्य का हृदय ही मर गया है, फिर संवेदनशीलता कैसे जीवित रह सकती है । क्या स्वार्थ में पड़े आदमी को देखकर लगता है कि उसमें कोई आत्मा नाम की चीज बची है ? अपने मन में घायल को देखकर भी यही विचार आएँगे कि कौन लफड़े में पड़े । अगर इस घायल को अस्पताल पहुँचा दिया तो पुलिस परेशान करेगी । कानून के चक्कर में फँस जाऊँगा । इससे तो अच्छा है चुपचाप निकल जाओ ।' लेकिन हृदयवान तो अपने शरीर का रक्त-मांस देकर भी शरणागत कबूतर की रक्षा करनी पड़े तो करेगा । जिसका हृदय जग गया, उसकी संवेदना भी जाग्रत रहती है और केवल मन में जियोगे तो विचार तो बहुत करोगे, पर कर कुछ न पाओगे। जिसके पास हृदय नहीं वह इन्सान को टक्कर लगा के आगे बढ़ जाएगा और हृदयवान एक चींटी को बचाने में भी अहिंसा का रक्षण समझेगा । उसे चींटी को बचाकर भी अपने आपको ही बचाना लगेगा । जीव पर की गई करुणा आत्म-करुणा ही लगेगी। किसी और का वध उसे अपना ही वध लगेगा । हृदय चाहिए, हृदय वालों की बात ही कुछ और होती है । हृदय ही वह धरातल है जिसे मंदिर कह सकते हो, जहाँ कोई अपवित्रता नहीं होती । विचारों में अपवित्रता हो सकती है, लेकिन हृदय में कतई अपवित्रता नहीं होती । हृदय भाव-केन्द्र हैं और मन-मस्तिष्क विचार - केन्द्र । किसी भी भक्त की केवल इतनी-सी इच्छा रहती है कि वह अगर कहीं बैठा हो और परमात्मा का उधर से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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