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ध्यान ः साधना और सिद्धि
में आधारभूत है, वह धर्म-ध्यान का प्रेरक है। निर्मल और विधायक सोच ही धर्म-ध्यान का आधार है।
हम धर्मध्यान के द्वारा आर्त-रौद्र ध्यान पर नियन्त्रण करें, उसका रूपान्तरण करें । मन विपरीत और विकृत दिशा में बहता हो, तो उसे वह सूत्र दें कि मन सार्थक दिशा ग्रहण कर ले । आर्त-रौद्र ध्यान में उलझा मन जीवन का जहर है। धर्म-ध्यान और शुक्ल ध्यान की ओर अभिमुख हुआ मन जीवन का अमृत है । काम-क्रोध-कषाय से गुजरता मन विष है, प्रेम-शांति-शुद्धि की डगर पर खड़ा मन अमृत है । विष को अमृत में रूपान्तरित करने का नाम ही धर्म-ध्यान है।
कुमारी मल्लि के प्रति छः-छः राजकुमार आसक्त हो उठे थे। सभी उससे विवाह करना चाहते थे। मल्लि ने उनके मन की धारा को समझा । उसने अपनी एक प्रतिमूर्ति बनवाई । उस मूर्ति का ढक्कन खोलकर रोजाना उसमें वह भोजन डाल देती, जैसा वह स्वयं करती । ढक्कन फिर बंद कर दिया जाता । यह एक महीने तक उपक्रम चला। आखिर, मल्लि ने सभी राजकुमारों को एक साथ आमंत्रित किया । राजमहल में खड़ी खूबसूरत मूर्ति को ही उन्होंने मल्लि समझा । पर जब वास्तविक मल्लि ने महल में आकर मूर्ति का ढक्कन खोला तो वे ठगे रह गये । लगे नाक-मुँह पर रूमाल लगाने । मल्लि ने कहा, जिस मल्लि के प्रति तुम मूर्च्छित बने हुए हो, उसकी काया भी यही भोजन ग्रहण करती रही है । तुम मल-मूत्र की इस काया के प्रति इतने मूर्च्छित हो रहे हो । सोचो, आखिर यह काया क्या है, इसका क्या परिणाम है, तुम्हारा बोध और पौरुष क्या नारी की मूर्छा में ही मिट जाएगा?
मूर्च्छित मन को बोध की दिशा मिल जाए, तो मुक्ति का द्वार खुल जाता है। राजकुमार सचेत हुए, उनकी जीवनमुक्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ। मन की धारा का शुभ की ओर मुड़ना ही धर्मध्यान है। अपने मन से सावधान । यह पागल मन तुम्हें कहीं भटका न दे । तुम उन्नत विचारों के मालिक बनो।
ध्यान के विज्ञान का अंतिम चरण है शुक्ल ध्यान । ध्यान की पवित्रतम, उज्ज्वलतम और उत्कृष्टतम अवस्था शुक्ल ध्यान है। धर्म-ध्यान में शुभ विषयों पर चित्त स्थिर होता है । शुक्ल ध्यान में न शुभ रहता है, न अशुभ । शुभ और अशुभ दोनों से ऊपर उठ जाता है व्यक्ति शुक्ल ध्यान में । पाप और पुण्य दोनों से ऊपर उठ जाता है, अधर्म से ही नहीं, धर्म से भी ऊपर उठ जाता है। जिस ध्यान की मदद से मनुष्य के कर्मों की निर्जरा होती है, आत्म-ज्ञान और आत्म-बोध प्राप्त होता है, संसार से स्वयं के
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