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मनुष्य का मन और ध्यान का विज्ञान
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अनुबंधित है । आप जब रास्ता चलते किसी व्यक्ति को अकारण कुत्ते पर पत्थर फेंकता हुआ पाएँ तो समझ लेना कि वह आदतन क्रूर है । वह करुणाशील नहीं हो सकता । वह विश्वसनीय नहीं है । अगर कुत्ता आप पर आक्रमण करता या काटने दौड़ता, तो समझ में आता कि आप उस पर लाठी फैंकें या पत्थर मारें । पर अकारण यह आपसे कौन करवा रहा है ? यह है मन में निरंतर चलने वाला रौद्र ध्यान ।
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आर्त और रौद्र दोनों ही अशुभ ध्यान हैं। दोनों ही मन को वैतरणी में डूबोते हैं । दोनों ही मानसिक शांति और मानसिक पवित्रता को खंडित और दूषित करते हैं । ध्यान के इस पक्ष पर मैं इसलिये बोल रहा हूँ ताकि हम इससे बच सकें और बढ़ सकें शुभ ध्यान की ओर, धर्म ध्यान की ओर ।
- ध्यान
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ध्यान के विज्ञान का तीसरा चरण है धर्म - ध्यान । जिस चितवन में जिस मनन और स्थिर अध्यवसाय में सदाचार और सद्विचार की प्रेरणा रहती है वह चिंतन धर्मका कारक है । जब मैं धर्म- ध्यान की बात कहता हूँ, तो इसका मतलब किसी मजहब, सम्प्रदाय, गच्छ, या पंथ से नहीं है । मैं व्यक्ति को बाह्य आडम्बर, बाह्य प्रदर्शन, बाह्य विरोधाभासों के साथ नहीं जोड़ रहा हूँ । जब मैं धर्म- ध्यान की बात कर रहा हूँ तो किन्हीं जैनों की बात नहीं कर रहा हूँ। क्योंकि तब जैन दिगम्बर और श्वेताम्बर में बँट जाएगा । हिंदू समाज की बात भी नहीं कर रहा हूँ क्योंकि तब आर्य समाज और वेदान्ती अलग-अलग खड़े हो जाएँगे । ईसाई धर्म का उल्लेख करूँ तो धर्म शब्द हट जाएगा । कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट धर्म के विभाजन सामने आ जाएंगे। अगर नाम लूँ मुसलमानों का तो मुसलमान किनारे हो जाएगा शिया और सुन्नी मुख्य हो जाएँगे। इतना ही नहीं कि धर्मों में इतने विभाजन होंगे, बल्कि धर्म के नाम पर चलने वाले क्रियाकांड और आचरण भी विरोधाभासी होंगे। मनुष्य के सामने समस्या है कि वह किस धर्म को अपनाए और किसका आचरण करे ।
आज धर्म का संबंध ध्यान से हट गया है, वह केवल क्रियागत होकर रह गया है। जीवन महज क्रिया-सापेक्ष नहीं होना चाहिए, जीवन हमेशा चिंतन और बोध - सापेक्ष होना चाहिए । अभ्यास नहीं, बोध चाहिए। धर्म - ध्यान आपके हृदय में जन्मे चित्त की विकार-विहीन अवस्था में, चित्त की सरलता और पवित्रता में ही मनुष्य का वास्तविक धर्म छिपा हुआ है । आत्मा की निर्मलता के साथ जीवन में जो आचरण सम्पन्न होता है, वह आचरण ही धर्म ध्यान है । जिस आचरण से हमें महसूस हो कि यह आचरण आत्म-सापेक्ष है, चित्त के विकारों को निर्मल करने में सहायक है । हमारा चरित्र बनाने
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