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मनुष्य का मन और ध्यान का विज्ञान
७७ उस राजमहल में आहारचर्या के लिए पहुंचे। उन्होंने विचार किया मैंने अपनी पत्नी और पुत्र का तो कल्याण किया है । क्यों न अपने भाई का भी कल्याण करूँ । भाई, जो अपनी पत्नी के साथ अठखेलियाँ कर रहा था, उसे सूचना मिली कि भगवान बुद्ध राजमहलों में आए हैं। भगवान आए हैं, यह जानकर, मजबूरी में ही सही, जाऊँ और उन्हें आहार दूँ । पत्नी ने कहा, जाओ प्राणप्रिय ! भाई को आहार दो, लेकिन ध्यान रहे मेरे ये गीले बाल सूखें, इससे पहले लौट आना । वह अपनी पत्नी को आश्वासन देकर बुद्ध के पास आता है। भोजन-चर्या होती है, बुद्ध लौटने लगते हैं। भाई का धर्म बनता है कि बुद्ध राजमहल तक आए तो वह उनके साथ जाए और उन्हें कुछ दूर तक अथवा बुद्ध के विहार तक पहुँचा दे । भाई पीछे-पीछे रवाना हो गया। आँख की शर्म ने फिर काम किया, भगवान बुद्ध के हाथ में भिक्षापात्र था। भाई ने सोचा, कुछ दूर तक यह पात्र अपने हाथ में ले लेता हूँ। बुद्ध चलते रहे - चलते रहे। भाई भी पीछे चल रहा था, पर यह हिम्मत न हुई कि बुद्ध से कहे कि मैं वापस लौट जाऊँ। यह कह न सका कि पत्नी ने घर से चलते समय कितने प्यार से कहा था कि मेरे सिर के बाल सूखें उससे पहले तुम लौट आना । उसके बाल अवश्य ही सूख गए होंगे, लेकिन बुद्ध को मैं कह नहीं सकता कि अपना पात्र थाम लो । मीलों चलते रहे।
__ बुद्ध अपने गुणशील चैत्य-विहार में पहुँचे । मजबूरी हो गई कि अब बैलूं और भगवान की देशना भी सुनूँ । भगवान ने देशना की । और यह इतनी वैराग्यवर्धक देशना थी कि कई लोग प्रभावित हो गए। भाई जो राजा भी था उसके सामने मजबूरी आ रही थी कि संन्यास ले या न ले । वह भी खड़ा हुआ, व्यवहारवश कि भाई स्वयं ही मना कर देंगे कि जाओ इतना बड़ा राज्य है उसे संचालित करो। खड़ा हो गया भाई का अदब रखने के लिए। वह बड़े अदब का युग था, अदब ही सही, उसने कहा 'भगवन् मेरे लिए भी संन्यास का सौभाग्य हो।' भगवान् तो जैसे इसी की प्रतीक्षा कर रहे थे । तुरंत संन्यास की स्वीकृति दे दी, वस्त्र बदल दिए, सिर मुंडा दिया गया। वह कुछ कह नहीं पा रहा है, पर मन में जो धारा चल रही है महावीर कहते हैं बाहर में संन्यास घटित, भीतर आर्त ध्यान जारी।
वर्षों तक वह संन्यासी भाई हर समय यही सोचता था ये बड़े-बड़े साधु भिक्षाचर्या कर रहे हैं, ये आतापना ले रहे हैं । क्या इनके मन में कामाग्नि नहीं सुलगती।
अरे, ये किसके लिए आतापना ले रहे हैं ? इससे तो अच्छा है घर जाएं और पत्नी के साथ जीवन के सुख भोगें। ये कितना कष्ट उठा रहे हैं । इस तरह मन निरंतर आर्त ध्यान में लगा रहा।
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