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ध्यान : साधना और सिद्धि बचाने के लिए तीन दिन और तीन रात तक अपना पाँव ऊँचा किए खड़े रहे । हाथी की योनि में खरगोश पर करुणा की और हाथी के रूप में संलेखना ली। पशु-योनि में उत्पन्न उस धर्म-ध्यान का स्मरण करो । आज तुम मनुष्य हो, लेकिन आर्त ध्यान की पीड़ा से भर रहे हो और पूर्व जन्म में जब तुम पशुयोनि में हाथी रूप थे, तब धर्म - ध्यान निष्पन्न हुआ था । '
अब हुआ मन का ऐसा सार्थक परिवर्तन, ऐसी चेतना का आविर्भाव कि संत राजकुमार चौंक गया और कहा, 'प्रभु, मुझे क्षमा करें। मैं नहीं पहचान पाया कि मैं वास्तविक रूप में कौन रहा, कौन हूँ, मुझे क्या होना है। अब तो केवल रात में ही नहीं, चौबीसों घंटे भी पाँवों से दुत्कारा जाएगा, ठोकर मारी जाएगी, तब भी यह बाल संत अत्यन्त सहिष्णुता और सहनशीलता के साथ स्वीकार करेगा । न केवल सहेगा बल्कि स्वीकार भी करेगा । मैं न जान पाया कि मैं कौन रहा, आप कौन रहे, मैं तो यही समझता रहा कि मैं एक राजकुमार और आप एक संत, पर हकीकत में आपने मुझ गिरते हुए को सम्हाल लिया । गिरते मन को थाम लिया ।' परिणामतः मन की दशा बदल गई, आर्त ध्यान धर्म- ध्यान में परिणत हो गया । पाँव की आहट और ठोकर जो मन में उठापटक कर रही थी, अब वही सजगता और जागरूकता का पर्याय बन गई । धर्म - ध्यान निष्पन्न हुआ।
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ध्यान पीड़ा और संत्रास के धरातल पर स्थिर हो, उससे बचना । जब किसी ष्ट का वियोग होगा, तब मन में पीड़ा जन्म लेगी। यह पीड़ा मन में अवसाद भरे विचारों का जाल फैलाएगी और यही है आर्तध्यान । अनिष्ट वस्तु के संयोग से और इष्ट वस्तु वियोग से मन में जो ऊहापोह चलता है, वह आर्त ध्यान है। शरीर में होने वाले रोगों व्यथित होकर निरंतर चलने वाला चिंतन भी आर्त ध्यान है । काम-भोगों की आकांक्षा और उसे प्राप्त करने का चिंतवन भी आर्त - ध्यान ही है ।
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उसे देखो, वह अपने रोगों के लिए चिंतित है । कोई अपने भोगों के लिए रात-दिन सोच रहा है । कोई अपनी पत्नी या प्रेमिका के किसी सुमधुर वचन का कायल है । ओह, मनुष्य का क्या, जिस ओर मन मूर्च्छित हो गया, मनुष्य का नजरिया उसी तक सीमित हो गया । ऐसा व्यक्ति उस पंछी की तरह है, जो पिंजरे से उड़ा भी दिया जाए, तब भी उसी पिंजरे की ओर लौटने की कोशिश करता है । विचित्र है पिंजरे का मोह |
कहते हैं : भगवान बुद्ध एक दिन अपने गृहस्थ जीवन के राजमहल में पहुँचे । उनका भाई राज्य-संचालन करता था । वह समय बहुत अदब और विवेक का था । बुद्ध
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