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ध्यानः साधना और सिद्धि
कितने जनम मन वचन तन से, श्रम किया, पीड़ा सही। दुर्भाग्य किन्तु दूर हमसे,
मुक्ति की मंजिल रही। ध्यान क्रिया नहीं है । अपने-आप में विश्राम है । ध्यान करना नहीं पड़ता, अपने आप में होना ही ध्यान है । महावीर और बुद्ध ने संन्यास लिया था। महावीर ने अपने साधनात्मक जीवन में कोई क्रिया की हो, ऐसा देखने को नहीं मिलता। वे हर प्रकार के करने के भाव से मुक्त हो गये । जो हो रहा है उसके भी मात्र ज्ञाता-द्रष्टा । उनका कैवल्य अक्रिया में से उजागर हुआ प्रकाश था । आत्म-निर्मलता का परिणाम था । बुद्ध ने संन्यास लेने के बाद क्रियाओं को अपने जीवन से जोड़ा, कई तरह की क्रिया और कर्म किये, लेकिन बात हाथ न लगी। क्रिया के मार्ग से वे निष्फल रहे । जैसे ही वे करने के भाव से मुक्त हुए, वे अपने आप के हो गये । वे संबद्ध हो गये।
बीसवीं सदी के एक गहरे आत्म-साधक हुए राजचन्द्र । उस साधक ने अपने जातिस्मरण में जाना कि उसके द्वारा अतीत में भी यम-नियम-संयम का पालन हुआ। आसन-पद्मासन लगाये गये, श्वास-निरोध की भी प्रक्रिया हुई, लेकिन उस साधक की अन्ततः यही अन्तर-पीड़ा उजागर हुई, अभी भी हाथ कुछ न लगा। वे ध्यान में निमग्न हो गये । हर करने के भाव से मुक्त हो गये। वे आत्मस्थ हो गये, आत्म-सिद्धि को उपलब्ध हो गये।
__ लाओत्से कहते हैं, अक्रिया से निकली हुई क्रिया । मुक्त होना उनसे जिन्हें हम क्रियाओं की संज्ञा देते हैं। अक्रिया की स्थिति घटित हो जाये तो फिर जो भी क्रिया होगी, वह साधक का आनन्द होगा। साक्षी की प्रस्तुति होगी। ऐसा व्यक्ति फिर अगर चलेगा तो उसके चलने में भी नृत्य होगा। चैतन्य महाप्रभु अगर चिड़ियों की चहचहाट सुनते तो जंगल में अकेले ही अहोनृत्य से झूम उठते । वे पत्तियों में प्रभु को देखकर मुस्कुराया करते और झील में निराकार का प्रतिबिम्ब देखकर अहोनृत्य कर उठते ।
तुम्हें देख क्या लिया कि कोई, सूरत दिखती नहीं पराई। तुमने क्या छु दिया बन गई, महाकाव्य गीता चौपाई। कौन करे अब मठ में पूजा,
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