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ध्यान : साधना और सिद्धि
निमित्त हमें आज या कल स्वतः मिल जाएँगे। जो विज्ञान के बारे में सोचता है, उसे वैसे साधन मिलेंगे । जो गणित के बारे में सोचेगा, उसे गणित के नये-नये फार्मूले मिलते जाएँगे । जो काव्य-चिंतन से जुड़ा है, उसके शब्द-भाव स्वतः काव्यात्मक होते जाएँगे ।
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तुम जिन बिंदुओं पर सोचोगे, प्रकृति तुम्हें उस ओर बढ़ने में मदद करेगी । किसी बिन्दु पर मन को स्थिर करना, स्थिर चिंतन करना, मन और बुद्धि को एकलय बनाना ध्यान का ही एक रूप है । कहते हैं, हस्तरेखाएँ बदलती रहती हैं । जो रेखा, आज है, जरूरी नहीं है कि वह छः महीने बाद भी रहे । विचारों के परिवर्तन के साथ रेखाएँ भी बदलती हैं । कुछ लोग रेखाओं को देखकर व्यक्ति की मनः स्थिति और भाग्यस्थिति बताते हैं । मैं कहूँगा तुम मन की स्थिति सुधार लो, हस्तरेखा की स्थिति अपने आप सही हो जाएगी । असली खोट हाथ में नहीं, मनुष्य के मन में है ।
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कहते हैं, एक बार अमेरिका में विद्वानों की एक संगोष्ठी आयोजित हुई । उस संगोष्ठी में सम्मिलित होने के लिए पेरिस से एक बिल्ली भी पहुँची । तीन घंटे तक समारोह में बैठी रही । जब वह लौटकर अपने परिजनों के बीच पहुँची तो परिजनों ने पूछा, 'तुमने सभा में क्या देखा, क्या सुना ?' उत्तर मिला, 'मैं वहाँ थी जरूर, लेकिन कुछ सुन न पाई, कुछ देख भी न पाई । क्योंकि समारोह के अध्यक्ष की कुर्सी के नीचे ही मेरी दृष्टि जमी रही ।' परिजनों ने पूछा, 'क्यों, ऐसा वहाँ क्या था ।' बिल्ली ने कहा, ' चूहा । '
अगर व्यक्ति के ध्यान की स्थिति बिल्ली जैसी है, मन की दशाएँ कुत्सित हैं, तो विद्वानों की सभा के बीच जाकर भी वैसी ही दशा बनती है जैसी अष्टावक्र की राजा जनक की सभा में पहुँचने पर हंसी-मजाक के रूप में सम्पन्न होती है । अगर हमारी दशा बिल्ली की है, तो हमारा ध्यान हिंसा का ही होगा। जैसा ध्यान होगा, वैसा ही परिणाम होगा । मन में हिंसा हो, तो दृष्टि में करुणा कहाँ से आएगी ।
मनुष्य को ध्यान योग से भी अधिक आवश्यकता मन के परिवर्तन करने की है । व्यक्ति यदि अपने मन को सार्थक दिशा न दे पाये, अपने मन को उदात्त जीवन की चेतना न दे पाये तो वह भारभूत जीवन ही जिएगा। वह अस्वस्थ रहेगा । वह मंदिर जाकर भी भगवान के दर्शन न कर सकेगा, वहाँ की कमियों को लेकर ही वापस आएगा । उसे मंदिर में भगवान कम, मंदिर की व्यवस्थागत कमियाँ ही नजर आएँगी ।
धर्मग्रंथों को पढ़कर मैंने व्यक्ति के उस वैराग्य को पहचाना है जब स्थूलिभद्र जैसे संत अपना वर्षावास एक वेश्यालय में स्थापित करते हैं । उस व्यक्ति की अन्तर्दृष्टि
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