Book Title: Dhyan Sadhna aur Siddhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 64
________________ साक्षीभाव ही साधना का गुर प्राचीन समय में यह व्यवस्था थी कि पच्चीस वर्ष की उम्र तक ब्रह्मचर्य स्वयं पालित हो जाता था और पचास वर्ष के होने पर स्वतः ही वानप्रस्थ की प्रेरणा हो जाती थी। केवल सामान्य जन ही नहीं, अपितु राजा-महाराजा भी वानप्रस्थ के लिए महल छोड़ देते थे। राज-महलों की घटनाएँ भी कभी मन को सुलगा देतीं और वानप्रस्थ घटित हो जाता । आज तो मानो मनुष्य संवेदना-शून्य हो गया है। कहीं कुछ घटता नजर ही नहीं आता । अपने घर के द्वार से भले ही किसी स्वजन की अर्थी निकले, तब भी जीवन में परिवर्तन की संभावना क्षीण है, तब भी जीवन का अर्थ समझ में नहीं आता । लेकिन तब व्यवस्था के तहत वानप्रस्थ स्वतः हो ही जाता और वानप्रस्थ जीवन के कदम खुद-बखुद संन्यास की ओर बढ़ जाते । कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता था । और आज जब आदमी की औसत उम्र छोटी हो गई है, हम गृहस्थाश्रम में ही लिप्त रहते हैं । उम्र कब पूर्ण हो जाती है, हम जान ही नहीं पाते । हमारी सारी व्यवस्थाएँ ध्वस्त हो गई हैं। आज अगर औसत आयु सत्तर वर्ष मान ली जाए और अठारह वर्ष की आयु में जब दुनियादारी की समझ आ जाए तो पैंतीस की उम्र में तो वानप्रस्थ की तैयारी कर ली जानी चाहिए । दुनिया के लिए जो करना था, कर चुके । अब आयु का तकाजा है कि आत्म-श्रम और आत्म-मुक्ति के लिए जिएँ । मृत्यु तुम्हें मार सके इसके पहले जीवन-जगत की आसक्ति से ऊपर हो, मृत्यु को जीत लें । मृत्यु जीवन को समाप्त करे, इसके पूर्व ही मुक्ति को उपलब्ध कर सकें तो बेहतर है । काया नश्वर हो, उससे पहले अनश्वर हो जाएँ, तो ही धन्यभागिता है। प्राचीन समय में एक जीवन-शैली थी, आत्मिक मूल्य थे, जीवन के सिद्धान्त थे, आज सभी तो समाप्त प्रायः हैं । हाँ, अगर कुछ है तो वह केवल पुस्तकों में बंद है, लेकिन पुस्तकें क्रियान्वित हो रहे सिद्धान्त नहीं हैं । सिद्धान्तों की अनुपस्थिति ने जीवन को पंगु बना दिया है। कहने को तो आज का मनुष्य प्रबुद्ध और बौद्धिक है, लेकिन आत्मिक आरोग्य के प्रयोग से अछूता है। रात को भोजन नहीं करना है यह याद तो है, लेकिन क्यों नहीं करना है इस विज्ञान को समझने की आवश्यकता है । धर्म और विज्ञान के मध्य, प्रयोग और अभ्यास के बीच मैत्री-सामंजस्य स्थापित होना ही चाहिए । ध्यान के प्रयोगों से गुजरने पर क्रोध का तापमान स्वयं ही कम हो जाएगा। तब कहना न होगा कि क्रोध छोड़ो, मान छोड़ो, राग छोड़ो, द्वेष छोड़ो । ध्यान-योग तन-मन में छिपी ग्रंथियों को खोल देगा और हम खुद उनकी निर्जरा होते हुए देखेंगे। तब कहना न पड़ेगा कि धर्म करो, तब धर्म स्वतः आचरित होगा, जीवन से धर्म का उन्नयन होगा। हम स्वतः पशुता के पाश से मुक्त होंगे और जीवन में प्रभुता का पदार्पण होगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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