________________
साक्षीभाव ही साधना का गुर
मेरे प्रिय आत्मन्,
ध्यान एक प्रयोग है और ध्यान-शिविर प्रयोगशाला । प्रयोग के धरातल पर ही विज्ञान का जन्म होता है । प्रयोग ही धर्म को जीवित करता है । धर्म यदि प्रयोगधर्मी हो जाए तो वह महज धर्म नहीं रहता, अपितु विज्ञान बन जाता है । विज्ञान धर्म के साथ सामंजस्य कर ले, तो वह विश्व के लिए अद्भुत वरदान हो सकता है । धर्म और विज्ञानदोनों का हाथ एक हो जाए तो व्यक्ति और विश्व के कायाकल्प के लिए यह सबसे बड़ा चमत्कारी साधन बन जाएगा। दिक्कत यह है कि धर्म के हाथ से प्रयोग छूट गया है और विज्ञान धर्म से विलग हो गया है। परिणामतः विज्ञान भी निरंकुश हो गया है और धर्म भी महज रूढ़िगत होकर अर्थहीन हो रहा है।
धर्म मनुष्य को यह विज्ञान देता है कि स्वर्ग और नरक दोनों मनुष्य के साथ ही चलते हैं । क्रोध और प्रेम दोनों मनुष्य के अन्तर्मन में रहते हैं । पीड़ा और आनन्द की संवेदनाओं का संवाहक स्वयं मनुष्य है । धर्म के संदेश तब तक सार्थक नहीं हैं जब तक उनका प्रयोग नहीं होता है । प्रयोग से ही धर्म के धरातल पर विज्ञान का जन्म होता है । प्रयोगों से ही धर्म मनुष्य को आत्मसात् होता है । धर्म रक्षक ही तब बनता है जब वह स्वयं प्रयोग हो जाए। धर्म कहता है तुम सभी से प्रेम करो, मगर कैसे ? जबकि मन परिवार की संकीर्णता में ही उलझा रहता है ऐसी स्थिति में प्रेम का प्रयोग क्या होगा ?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org