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ध्यान ः साधना और सिद्धि
न बन पाए । जो जीवन की परछाई न बन पाए।
यहाँ उपस्थित साधकों में एक पचासी वर्षीय वृद्ध भी बैठे हैं—ये हैं श्री शांतिचंद्र भंडारी । बड़े देव-पुरुष हैं। भारत भर के विवेकानंद केन्द्र संचालित करते हैं, अध्यक्ष हैं । कुछ दिन पूर्व इनके अठारह वर्षीय पौत्र का देहान्त हो गया। एक ही बेटा, उसके भी एक ही लड़का, देह छोड़ गया, वह भी दुर्घटना में । हम इनके घर पहुँचे और पहुँचते ही इन्होंने जो सुकून दिया, वह जानने जैसा है। घर में मृत्यु हो जाए और गुरु वहाँ पहुँचे तो शिष्य का क्या जवाब होता है, वह जीने जैसा है । इन्होंने कहा, 'पधारो, आनन्द आ गया।' घर में शोक का वातावरण, सभी सदस्य रो रहे हैं और यह साधक कहते हैं, “आनन्द आ गया, मत्य की वेला में कोई निर्वाण का गीत और संगीत सुनाने पहुँच गया।' मैंने आँखें बंद की और इस साधक की आत्मा को प्रणाम किया । हृदय ने कहा, साधक हो तो ऐसा । जीवन का बोध हो तो ऐसा । यह घर में जरूर रह रहा है, लेकिन संत हो गया, गृहस्थ-संत ! मैंने पूछा, आपके पोते का नाम क्या था, कहने लगे, सिद्धार्थ था और वह सिद्ध हो गया।
मृत्यु की वेला में भी कितनी सहज शांति ! कितना सहज मौन-भाव ! मैं इस स्थिति को जीवन का वरदान कहँगा। यह अमृत स्थिति है, भगवान करे जब हमारी भी देह छूटे, तो हम ध्यान में हों, अन्तर-ध्यान में । देह छूट जाए और हम मुक्त हो जाएँ। माटी, माटी में बिखर जाए और ज्योति, परम ज्योतिर्मय हो जाए।
जब तक सशरीर रहें, आनन्द मग्न रहें । धरती पर जिएँ, तो अपनी ओर से खिले हुए फूल की तरह प्रमोद-भाव से प्रमुदित रहें और अपनी ओर से धरती पर ऐसे ही फूलों की प्रभावना करें । तुम अपने मालिक बनकर जिओ, अपने विचारों के मालिक, मन और इन्द्रियों के मालिक, अन्तरात्मा के मालिक। अच्छाइयाँ ग्रहण करो और अच्छाइयाँ बाँटो । तुम मंदिर के अखंड दीप बनो कि तुम्हारी रोशनी ही तुम्हारा व्यक्तित्व बन जाए और तुम्हारी रोशनी ही भगवान की पूजा।
बुद्ध का वचन है अप्प दीपो भव । तुम अपने दीप खुद बनो । मैं हूँ, मेरा महत्त्व है, पर तुम्हारे लिए मुझसे ज्यादा तुम्हारा महत्त्व है । तुम अपने आपको महत्त्व दो, ताकि तुम्हारी आन्तरिक महिमा उजागर हो ।
आज इतना ही निवेदन है।
नमस्कार।
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