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ध्यानः साधना और सिद्धि हो रहा था? महावीर ने प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद लगातार चौदह वर्षों तक क्या किया? जीसस ने सूली पर लटकाए जाने के बाद क्षमा और करुणा के जो शब्द कहे थे, वे शब्द कहाँ से आए? सत्य के लिए सुकरात ने विषपान किया—यह आत्मबल कहाँ से आया कि वे गरल-पान कर सके । साफ है उनमें योग का बल था, ध्यान और सत्य-बोध की गहराई थी। ध्यान जीवन में गहराई देता है और उसी गहराई से आत्मबल मुखरित होता है । सहिष्णुता और करुणा का उदय होता है । निश्चय ही इन सबको भी ध्यान आत्मसात हुआ । वे आत्मवान हुए, आत्म-ओज को उपलब्ध हुए।
ध्यान रहे, आम ज्यों-ज्यों पकता है, डाल त्यों-त्यों नीचे झुकती है। जब कोई अपनी परिपूर्णता में खिलता है तो एक अलग ही सौम्यता, एक अलग ही सरलता, एक अलग ही करुणा से भर उठता है । सारा संसार उसकी करुणा का पात्र हो जाता है।
ध्यान स्वयं की सौम्यता को ही उपलब्ध करने का उपक्रम है । यह शान्त मनस् की साधना है, ऊर्जस्वित चेतना को उपलब्ध होने की प्रक्रिया है । ध्यान का मार्ग किसने दिया, यह बात गौण है । ध्यान की ज्योति हमें कितनी ज्योतिर्मय कर सकती है, यह बात मुख्य है। ध्यान की विधियों में, धर्म के अलग-अलग रूपों में भिन्नता हो सकती है, लेकिन यह भेद ऐसा ही है जैसे कोई माटी का दिया हो और कोई स्वर्ण या रजत का। लेकिन उनकी ज्योति में कोई फर्क नहीं है । उनसे उठने वाला प्रकाश एक ही है । तुम्हें महावीर और बुद्ध या क्राइस्ट और मोहम्मद में फर्क नजर आ सकता है, लेकिन उनमें प्रज्वलित ज्योति एक ही है, अन्तर-आत्म में कोई अन्तर नहीं है । दीया कोई भी हो, क्राइस्ट का या मुहम्मद का, कृष्ण का या कबीर का, महावीर का या बुद्ध का, दियों में भेद हो सकता है, लेकिन दियों को प्राप्त ज्योति में कोई भेद नहीं होता। इन महामहिम लोगों ने, इन दिव्य पुत्रों में मानवता को ध्यान का वह विज्ञान, प्रेम का वह मार्ग, जीने की वह कला दी है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने प्रकाशमयी 'जीवन' तत्त्व को उपलब्ध होता है। जिसके द्वारा मनुष्य पहचानता है कि वह कौन है, कहाँ से आया है, कहाँ जाएगा, उसके जीवन का मूल स्रोत क्या है ।
साधारणतः व्यक्ति ध्यान करता है, लेकिन फिर भी ध्यान से वंचित ही रह जाता है, उसे कभी स्वयं का ध्यान होता ही नहीं।
ध्यान हमें हमारे आत्मवान् होने का बोध है । "मैं हूँ" इस शान्त-शून्य बोध का नाम ध्यान है । तुम आत्मा हो । आत्मा को न खोजना है, न पाना है; वरन जो है, उसमें स्थिति बनाये रखना है । समस्या आत्मदर्शन की नहीं है, समस्या ऊबड़-खाबड़, अशान्त
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