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ध्यान ः साधना और सिद्धि
आदिशक्ति की आज्ञा से इतने सारे देवों ने मनुष्य को अपना लिया। शैतान, जो अपने लिए जगह ढूँढ रहा था, इतने देवों को मनुष्य में प्रवेश करते देख, चुपके से उसने भी मनुष्य में प्रवेश कर लिया। वह मन के अचेतन गर्त में छिप गया। और देव तो आनन्दमग्न हो गये, पर शैतान तृप्त न हो सका, सो वह अभी तक भटक रहा है, उछल-कूद कर रहा है । कभी स्त्री में, कभी जमीन में, कभी धन में आसक्ति का सौन्दर्य ढूँढ रहा है । मनुष्य को देखो तो सही, उसे केवल स्त्री ही दिखाई देती है । उसी में रस लिया। उसी के रस को रस माना । जब भी उसने देखा स्त्री को देखा या फिर जमीन, जायदाद, धन-दौलत, पद, कुर्सी में उलझा रहा । इसके अतिरिक्त उसे शायद ही कभी कुछ दिखाई देता हो । ओझल हुआ है तो सूरज हुआ है । वायु देवता ओझल हुए हैं। जाना बहुत कुछ है, पर नहीं जाना तो अपने मस्तिष्क में विराजित बृहस्पति को । शरीर का जाल तो उसे दिखाई दे रहा है उदर, जिह्वा, नाभि दिखाई दे रही है । नहीं देख पा रहा है तो वहाँ स्थित अग्नि देव को नहीं देख पा रहा है । हृदय के स्पंदन तो उसे सुनाई देते हैं, शीतलता भी नजर आती है, अगर नजर नहीं आता तो वह चन्द्रमा है।
मुझे तो स्वयं में और आप में भी वही देवता और उनकी दिव्य किरणें नजर आती हैं । मैं सांसों में वायुदेव को देखता हूँ और हृदय में चन्द्रमा को । दिमाग में देव गुरु को और नाभि में अग्निदेव को। ध्यान का प्रयोग ही इसलिए है कि वह स्वयं में समाहित दिव्यत्व को जाग्रत करे । काया में रहने वाले कायनात तक पहुँचाए । काया हमारा मंदिर हो जाए, जहाँ से धूप की मदमदाती सुगंध विस्तीर्ण हो ।
__जब किसी ज्ञानी का सत्संग उपलब्ध हो जाए तो जैसी ऋचाएँ और आयतें सुनाई देती हैं वैसी सुन रहा हूँ, देख रहा हूँ। देखता हूँ, जान रहा हूँ । देखता हूँ और संवेदनाओं का अनुभव कर रहा हूँ । देखता हूँ, देखने में दिव्यत्व को देख रहा हूँ । देख रहा हूँ मन में कहीं-न-कहीं से आने वाले तमस को भी । तमस की जंजीरों को काटने के लिए ही ध्यान की धारणा है । मन की कारा कटे और हृदय की धारा फूटे, जीवन में बस इतना-सा मंगलाचरण चाहिए । हमें भीतर के तमस को हटाकर दिव्यत्व को जगाना है। अपने अन्तर में विद्यमान देवताओं से मैत्री बनानी है और परा शक्ति से संबंध स्थापित करना है।
___ मन इन सबके बीच रुकावट है । मन की उच्छंखलता से जीवन में पागलपन है। मन के कारण ही युग कृष्ण लेश्याओं से युक्त है। मन की राजनीति जीवन की सौम्यता और पवित्रता को ध्वस्त कर देती है। अच्छा होगा हम जीने की कला और
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