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मन को मिले सार्थक दिशा
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अपने आसन से खड़ा हो गया हूँ और एक केवली को अपने प्रणाम समर्पित करता हूँ - भगवान ने करबद्ध होते हुए कहा कि अब वह बालक बालक नहीं रहा, अइमुत्ता नहीं रहा, वह अतिमुक्त हो गया है।
मन की धारा ऐसी बदली कि मन खो गया और स्वयं से मिलन हो गया। ऐसी धारा मिली कि असत्य छिटक गया और सत्य सत्य को उपलब्ध हो गया। ऐसी धारा पाई कि अशांति चित्त से बिखर गई और शांति की ज्योति अखंडित रूप से प्रज्वलित हो गई। आनन्द की धारा बह निकली। भगवान ने उन्हें प्रणाम किया कि धन्य हो बालश्रमण, तुम हो गए अतिमुक्त ।
वे सभी मक्ति मार्ग का अनुगमन करेंगे जिनके पास शुभ विषयों से जुड़ा मन है, तन्मय,सुलीन और सम्यग् दिशा है । तब हम अपनी अन्तर्शक्ति के स्वामी हो जाएँगे। उस शक्ति के स्वामी जो घट-घट कण-कण में व्याप्त है । जिसे ईश्वर कहकर हम उसकी प्रार्थना करते हैं, अपने पुण्य समर्पित करते हैं।
मन तन्मय मन हो जाए, सुलीन मन, लय योग को साध लें, तो मुक्ति और मोक्ष स्वतः स्वयं में साकार हो जाते हैं । मन शून्य हो जाए, तो महाशून्य से हमारा अस्तित्व एकाकार हो जाता है। मन, जो बाधक रहा, वही साधक और सहायक हो जाता है अन्तर्निहित शक्ति, पराशक्ति, परमात्म-शक्ति के अभ्युदय में । मन सुलीन मन हो जाए, तो मनुष्य खुद मनु हो जाता है।
हम ध्यान से मन को पहचानें । या तो साक्षी-भाव की प्रगाढ़ता से मन से उपरत/ मुक्त हो जाएं, या परमात्म-अस्तित्व में उसे विलीन-सुलीन हो जाने दें । भक्ति की तन्मय अहोदशा से मन को धूप की तरह उठने दें और जैसे धूप आकाश की ओर उठकर आकाशमय हो जाता है, ऐसे ही हमारी चेतना महाचेतना से एकाकार-तदाकार हो जाए, जीवन ज्योतिर्मय हो जाए।
इतना ही अनुरोध है।
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