Book Title: Dhyan Sadhna aur Siddhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 45
________________ ध्यान : साधना और सिद्धि 1 रुचि ही नहीं है । अच्छा लगता है इसलिए ध्यान करने को मन होता है - शायद कुछ मिल जाए । लेकिन अभी तो रसमयता ही नहीं है, अभीप्सा और अभ्यास भी नहीं है - कुछ मिलता भी नहीं है तो झटपट ध्यान से विमुख हो जाते हैं । ध्यान में भी दुकान-मकान का घाटा-मुनाफा मनोमन चक्कर लगाता रहता है । परदेश गई पत्नी का चिंतन चलता रहता है । हालांकि चिंतन भी हुआ और ध्यान भी, लेकिन यह ध्यान अंत में पीड़ा दे गया, कसक दे गया । ३४ 1 वह ध्यान किस काम का जो तुम्हें पुलकित न कर सके, आनन्द से न भर सके, बल्कि पीड़ा दे जाए । वह ध्यान जो आपकी नींद उड़ा दे, आपको छटपटा डाले, आपके तन-मन को जला डाले, तो वह ध्यान नहीं हुआ। वह तो आर्त और रौद्र ध्यान हो गया । दुकान का ध्यान है, मकान और परिवार तथा बच्चों का ध्यान है, लेकिन यह सब सीमित ध्यान हैं और इन्हीं में उसका रमण भी है । वह अगर मंदिर भी जाता है तो परमात्मा से ध्यान नहीं लगा पाता, क्योंकि वहाँ मन टिकता ही नहीं है । मन नहीं टिकता क्योंकि मन के पास परमेश्वर की भाषा नहीं है । मन की अपनी भाषा है जो सिर्फ संसार की भाषा है। उसके पास मोक्ष की भाषा होती ही नहीं । शब्द होते हैं, पर भाषा नहीं । मन उस तूफान की भांति है जो शांत नहीं होता । यह गलत है कि हम मन की तुलना तूफान से कर रहे हैं । तूफान तो तबाही मचाने के बाद शांत भी हो जाता है, पर मन में तो निरंतर तूफान उठते ही रहते हैं, मन तो जैसे शांत होना जानता ही नहीं । वह तो उलझा ही रहता है । शुभ-अशुभ के अन्तरद्वन्द्व में । I मनुष्य का एक और मन है जिसे हम तन्मय मन कहेंगे, सुलीन मन कहेंगे । किसी भक्त का मन ऐसा ही तन्मय होता है, ऐसा ही सुलीन और रसपूर्ण होता है । जहाँ लग गया वहीं लीन, तल्लीन । ध्यान और धर्म के लिए केवल तन्मयता चाहिए । जीवन को जीने के लिए भी तन्मयता चाहिए। ऐसा तन्मय मन जिसका संबंध शुभ विषयों, शुभ निमित्तों के साथ जुड़ा हुआ हो । मेरे सामने नारी भी आती है, पुरुष भी आते हैं लेकिन मैं किसी को हटाता नहीं हूँ, ऐसा भी नहीं कि पुरुष से प्रेम करूँगा और स्त्री से प्रेम न करूँगा । अगर संश्लिष्ट मन हो, उलझा हुआ मन हो, तो दोनों की केवल काया दिखाई देगी । लेकिन सुलीन मन होने पर वह शुभ विषयों पर एकाग्र और स्थिर होता है । तब वह स्त्री और पुरुष में काया के अतिरिक्त भी बहुत कुछ देख लेता है और यह दिख जाना ही सत्यम् का दर्शन है, सम्यग् दर्शन है। मैं अपने जीवन को प्रेम से भरा हुआ पाता हूँ । अपने जीवन में करुणा और दया भी पाता हूँ । प्रेमरहित होने का उपाय भी 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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