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एक डुबकी अपने भीतर
कारण है भरपूर श्वास का परिचालन । विपश्यना के लिए पूर्ण श्वास-प्रश्वास । श्वास में गहराई और श्वास के प्रति सजगता लाएँ तब ओम् नाभि तक स्वतः पहुँचेगा ।
ॐ को केवल नाभिस्थल तक ही न पहुँचाएँ, वरन् सम्पूर्ण देहाकृति तक अपनी प्राणधारा के साथ विस्तृत हो लेने दें । देह के रोम-रोम से ओम् का विस्तार हो । ॐ को विराट् होने दें, ओम के साथ ही स्वयं भी विराट हो जाएँ । ॐ के साथ ही समष्टि में समाविष्ट हो जाएँ ।
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ध्यान की गहराई में पहुँचने के लिए शरीर-विज्ञान का ज्ञान होना आवश्यक है ?
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मेरा सुझाव है कि प्रत्येक को शरीर विज्ञान का ज्ञान होना चाहिए । शरीर चाहे नश्वर है, लेकिन जीवन का साकार रूप यह शरीर ही है। हम संसार में शरीर के साथ ही संपर्क बनाते हैं । इसलिए अगर देह से देहातीत होना है, तो पहले देह को समझना होगा । मेरा मानना है जब तक हम देह के विज्ञान को नहीं समझ पाते, देह से ऊपर नहीं उठ पाएँगे । हम देह की संरचना को समझें और देखें कि अंत में इसका क्या हश्र होता है । जब किसी शव को देखें तो स्मरण रखें कि एक दिन हमारे शरीर की भी यही परिणति होनी है । स्वयं का निरंतर स्मरण आपको ध्यान की गहराई में ले जाएगा । तब आप मृत्यु से भयभीत नहीं होंगे। साधना में घटित समाधि मृत्यु के रहस्य का साक्षात्कार कराएगी ।
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संबोधि-ध्यान में हम देह को भीतर से देखते हैं और देखते हैं भीतर बनी हुई ग्रन्थियों को । ध्यान मनोविकारों की ग्रंथियों को स्थिर कर काटने की चेष्टा करता है I संबोधि का अर्थ ही है सम्यक् बोध, सम्यक् समझ; वह ज्ञान - दृष्टि, जिसकी निष्पत्ति सम्यक् दर्शन के द्वारा होती है। ज्ञान तो मनुष्य को बहुत है, पर बोध किंचित भी नहीं । सिगरेट न पीने का ज्ञान तो है, पर बोध नहीं । क्रोध न करने का ज्ञान है पर बोध नहीं । फर्क क्या हुआ ? सिगरेट के पैकेट पर चेतावनी को पढ़ लेना ज्ञान है और उस पर अमल करना बोध अर्थात् यह समझ आ जाए कि सिगरेट शरीर के लिए नुकसानदेह है यह बोध है । और जब यह बोध सम्यक् हो जाता है अर्थात् जान लेने के पश्चात् उसी पर दृढ़ रहता है, विचलित नहीं होता तब यह है संबोधि ।
हमें जन्म, जीवन और मृत्यु - देह से जुड़े इन तीनों पहलुओं को समझने की चेष्टा करनी चाहिए । देह को केवल त्वचा की दृष्टि से नहीं, वरन् उसके स्थूल और सूक्ष्म
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