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एक डुबकी अपने भीतर
और अंत में चौथे तल तक पहुँचा देता है । बिल्कुल ऐसे ही जैसे किसी भूखंड को खोदते हैं तो पहले मिट्टी मिलती है, फिर पत्थर आते हैं, उसके बाद कीचड़, और गहरे खुदाई करते जाते हैं तो शीतल जल की रसधार फूट पड़ती है। ऐसे ही व्यक्ति के अन्तःकरण में गहराई की निर्मिति होती चली जाती है । मैंने प्रातःकाल कहा था उन्नत, उच्च मानसिक ऊर्जा के स्वामी बनो, उन्नत मस्तिष्क के मालिक बनो । पहले चरण में तो यही लगता है कि एक ही तो मस्तिष्क है, लेकिन जैसे-जैसे साधना की गहनता होती है, रहस्यों के द्वार खुलते हैं और परत-दर-परत उतरती जाती हैं । ज्यों-ज्यों अन्तस्का स्पर्श होता है, व्यक्ति मूर्छा से प्रज्ञा के प्रकाश में प्रविष्ट होता जाता है । अन्तःकरण के द्वारों के खुलने के साथ अन्तर्शक्तियों का स्वामित्व अनायास उपलब्ध हो जाता है ।
मेरे देखे, जितना समय हम संसार के लिए देते हैं, उससे एक-चौथाई समय भी अगर अन्तर-शांति के लिए दिया जाये, तो व्यक्ति स्वयं की शांति का स्वामी बन सकता है। संसार आपके जीवन को पूर्ण कर पाया या नहीं यह संशय सदा, कहें कि आखिरी क्षण तक बना रहता है, लेकिन ध्यान आपको अवश्य ही पूर्णता प्रदान करेगा। अन्तर्मन की कोमलता देगा। संसार में आप खोने-पाने की बैलेन्स-शीट बनाते हैं, लाभ-हानि का ब्यौरा रखते हैं, लेकिन ध्यान में सिर्फ पाना है । खोना तो कुछ भी नहीं है । वहाँ हानि का तो प्रश्न ही नहीं है । खोना केवल अशांति को है, पर इसे हम खोना भी कैसे कहें । तुम शांति में उतरते हो, तो अशांति के उद्वेग स्वतः तिरोहित होते जाते हैं । जैसे सरोवर में उतरो, तो देह पर चढ़ा मैल तो अनायास ही उतर जाता है । तुम शांति में उतरो, अशांति अपने आप मैल की तरह छंटेगी।
हम केवल शांत मन होने पर ध्यान दें । न बन्धन की चिन्ता करें, न मुक्ति की। मुक्ति को साधना नहीं है । मुक्ति तो हमारी चेतना का सहज स्वभाव है । चेतना तो मुक्त ही है। उलझन सारी मन की है, मन के संस्कारों की है, संस्कारों के सातत्य की है । जो इनसे उपरत है, वह मुक्त है । शान्त मन आत्मानंद में ही जीता है । उसकी बुद्धि स्वतः प्रखर रहती है । उसका हृदय सदा सहज सौम्य-कोमल रहता है । वह दिव्य लोक से आया पथिक होता है और दिव्य लोक की ओर लौट जाने वाला पथिक । वह केवल कुछ समय के लिए पृथ्वी-ग्रह पर रहता है। उसका न जन्म है, न मृत्यु ।
प्रिय आत्मन् ! आओ, स्वयं से मुखातिब होएँ । प्रमोद करें । मौन के बोध से पुलकित हों । मौन का स्वर मुखर हो जाये । अन्तर-वीणा के तार झंकृत हो जायें, बीज में से फूल खिल जाये । कृपया थोड़ा-सा समय दीजिए, स्वयं के लिए, स्वयं के सत्य के
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