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ध्यान ः साधना और सिद्धि
लिए, स्वयं के मनन के लिए, अपने अस्तित्व के चिंतन के लिए । आपके अंदर सुकरात जन्म ले सकता है, कोई महावीर उतर सकता है, कोई कृष्ण साकार हो सकता है । आपके अन्तःकरण के कारागार में कृष्ण जन्म ले सकता है और भीतर की बेड़ियों को तोड़ सकता है । हृदय में मीरा का नृत्य हो और मन में बुद्ध का मौन, बस आनन्दित जीवन का इतना ही सार है । इसके लिए हमें अन्तर-ध्यान में उतरना होगा। भीतर डूबकी लगानी होगी। बिना ध्यान और समझ के धर्म जीवित नहीं रह सकता । बिना ध्यान के धर्म कंधों पर ढोया जाने वाला लबादा मात्र है । ध्यान में रमण करो और गहराई को जिओ । जीवन चाहे कम हो या ज्यादा, लेकिन पूर्ण गहराई और प्राणवत्ता से जिओ। ध्यान में, ध्यान से जिओ।
___ध्यान का अर्थ ही है स्वयं में जीना । ध्यान का पहला चरण ही है—बाहर से भीतर की ओर मुड़ो। भीतर में चलने वाले कोलाहल को शांत करना-यह ध्यान का दूसरा चरण है । विधि कोई भी हो सकती है, ध्येय एक ही है। मार्ग भले ही अलग हों, पर मंजिल एक है। ध्यान का तीसरा और अंतिम चरण है-कोलाहल के शान्त होने के बाद प्राप्त होने वाले मौन और आनन्द में रमण करो । इन तीन चरणों में ही ध्यान का पूरा विज्ञान है, सम्पूर्ण मार्ग है । ध्यान का संबंध हमारे अपने साथ है, इसलिए ध्यान जीवन-सापेक्ष है। बाहर से भीतर की ओर मुड़ना, अन्तर्मुखी हो जाना ही प्रतिक्रमण है, भीतर के शोरगुल को समाप्त करना, अन्तर की शांति को पा जाना ही सामायिक है और इस शांति और मौन को जीना ही कैवल्य और समाधि है । अन्तरगुहा में ध्यान की गहराई आने पर आगे की रोशनी अपने आप मिलती जाती है। तमस के फंद कटते हैं, प्रकाश की किरणें अवतरित होती हैं । चट्टानें हटती हैं, निर्मल नीर मिलता है । दीया नीचे धरा रह जाता है, बाती ज्योतिर्मय हो उठती है।।
कुछ प्रश्नों पर चर्चा कर लें। * पहला प्रश्न है : प्रभु, जब ध्यानावस्था में होते हैं, तीन-चार मिनिट बाद ही अति
सूक्ष्म गोल-गोल सा पुंज घूमता दिखाई देता है और कुछ समय बाद आँखों में अश्रु उमड़ आते हैं। क्या ध्यान में ऐसा होता है ? अगर होता है तो क्या यह सही है ? क्या मैं ध्यान में सफलता हासिल कर सकती हूँ । अगर नहीं होता तो सुधारने का प्रयास करना चाहती हूँ, मार्गदर्शन दें।
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