Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

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Page 18
________________ सरिजीका विषाद और भीषण प्रतिज्ञाः यह कितना करुण प्रसंग था ! शिष्यस्नेहकी प्रबलताने हरिभद्रसूरि जैसे तेजस्वी ज्ञानराशिको घेर लिया। उनके हृदयमें इस चोंटने उनको इतना बेवस कर लिया कि उनके क्रोधके प्रखर तापको कोई भी उस वख्त नहीं झेल सकता था। इस प्रतिक्रियाके तांडवने उनके निर्मल हृदयको क्षुब्ध बना लिया। सचमुच, कोको गहन गतिको कौन पा सका है ? स्पष्ट दिखाई पडताथा कि समर्थ श्रुतधर भी ऐसे अवसरमे आत्मजागृति गूमा रहे थे। फलत. वे बौद्धोके ऐसे घातकी कृत्यका बदला चुकानेको ऊतारु हो गये । सूरिजी बडे वेगसे विहार करके सुरपाल नगरके राजाके नगरमें आ पहुंचे । सुरपालको यह सब बात कह सुनाई । सुरपाल राजाने सूरिजीकी उत्कट इच्छाको जानकर बौद्ध भिक्षुओंको वादके लिये दूतोंद्वारा बुलावा भेजा। बौद्ध मिक्षु सुरपालकी राजसभामें वाद करने आ जमे। सूरिजी और बौद्ध भिक्षुओके बीच इस वादकी शरत, जो सूरपाल राजाने दोनोंकी सम्मतिपूर्वक निश्चित की थी, बडी कठोर और घातकी थी। सूरिजीने अपने शिष्योंके दु.खद अवसान और बौद्धों परके प्रबल रोपसे कपायके वशीभूत होकर ऐसी शरत भी मंजूर रवाली थी कि ' इस वादमें जो पक्ष पराभूत हो जाय उस पक्षके आदमी अतिशय गरम किये हुए तेलकी कढाईमें जल कर मर जाय। ' कितने हतभाग्यकी यह घटना थी । अहिंसाके परम उपासक दोनों संप्रदायके आचार्योंने कैसा उल्टी गगाका राह पकड रक्खा था ! यह वाद क्या था आदमीका नहीं, प्रत्युत सिद्धांतका गला घोटा जा रहा था।

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