Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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अकारादि-चूर्ण
(२१)
पीने से या १। तोला मुण्डी की जड़ को पानी के | जल में मिलाकर पकावे । जब चौथाई पानी शेष साथ पीने से त्रिदोषज गुल्म का नाश होता है। | रहे तो उसे (२१ बार) कपड़े में छान ले और [६४] अभयालवणम्
फिर उस पानी (क्षारोदक) में सेंधानमक १ सेर, हैड (भै. र. प्ली. चि.) .
१/२ सेर और गोमूत्र क्षारोदक के बराबर मिलाकर
मंदाग्नि पर पकावे । जब गाढ़ा होजाय तो उतार पारिभद्रपलाशार्कस्नुह्यपामार्गचित्रकान् ।
कर गरम गरम में ही (इतना गरम रहना चाहिये . वरुणाग्निमन्थवसुकश्वदंष्ट्रहती द्वय ।।
कि भाप निकलती रहे) नीचे लिखी चीजोंका चूर्ण पूतिकास्फोत कुटज कोषातक्यः पुनर्नवा ।
मिलावे-जीरा, त्रिकुटा, हींग, अजवायन, पोखरमूल समूलपत्रशाखाश्च क्षोदयित्वा उदूखले ॥
और कपूरकचरी, प्रत्येक का चूर्ण २॥ २॥ तोला । तिलनालप्रदीप्ताग्निसुदग्धं भस्मशीतलम् ।
इसे यथोचित मात्रा में और यथोचित अनुक्षारप्रस्थं गृहीत्वा तु न्यसेत्पात्रे दृढे नवे ॥
पान के साथ सेवन करने से उदररोग, जिगर और जलद्रोणे विपक्तव्यं ग्राह्य पादावशेषितम् ।
तिल्ली के रोग, अफारा, गुल्म अष्ठीला, मन्दाग्नि, पूर्ववत् क्षारकल्पेन स्रावयीत विचक्षणः ॥
| शिरोरोग, हृद्रोग और शर्कराजन्य पथरी का नाश प्रस्थमेकं च लवणं तदद्धां च हरीतकीम् ।
| होता है । ४ तुल्याम्बुभागं गोमूत्रं साधयेन्मृदुनाग्निना॥ किश्चित्सावाष्पसान्द्रे च सम्यक् सिद्धेऽवतारिते।
[६५] अभया विरेचनम्
११ अजाजीत्र्यूषणं हिङ्गु यमानी पौष्करं शटी ॥ (सु. स. । उ० अ० ४०) एतैरधेपलैर्भागेश्चूर्ण कृत्वा प्रदापयेत् । स्तोकं स्तोक विबद्धंवा सशूलं योऽतिसार्यते । अभयालवणं नाम भक्षयेच्च यथा बलम् ॥ अभया पिप्पली कल्कैः सुखोष्णैस्तं विरेचयेत् ॥ व्याधिश्च वीक्ष्य मतिमाननुपानं यथः हितम्। हैड और पीपल समान भागका चूर्ण मन्दोष्ण ये च कोष्ठ गता रोगास्तानिहन्ति न संशयः॥ पानी के साथ खाने से अल्प अल्प, बार २ होने यकृत्प्लीहोदरानाहगुल्माष्ठीलाग्निसादजित । वाले प्रवल और शूल सहित अतिसार का हन्याच्छिरोऽर्तिहृद्रोगान् शर्कराश्मरीनाशनम् ॥ नाश होता है। . पारिभद्र (फरहद) ढाक, आक, थोहर, चिर- [६६] अमलतास रखने की विधि चिटा, चीता, बरना, अरणी, सफेद आक, गोखरु, |
(च. सं. क.।) दोनों कटेली, करंजवा, आस्फोत (कचनार) कुड़ेकी | फलकाले फलं तस्य ग्राह्यं परिणत यत् । छाल, कड़वी तोरी और पुनर्नवा। इन सब वृक्षोंके | एषां गुणवतां भारं सिकतासु निधापयेत् ॥ मूल, पत्र, शाखा लेकर ओखली में कूट कर तिल- | १ हाफरमालीति बङ्गे नाल की अग्नि में जलावे । जब इनकी भस्म (राख) | अभया लवण तिल्ली और जिगर के लिये ठंडी होजाय तो उसमें से १ सेर लेकर १६ सेर । खास तौर पर फायदेमन्द है।
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