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यह काम कर सकता है । अतः शक्ति आत्मा की नहीं, अपितु शरीर की है और शरीर के नाश के साथ ही उसका नाश हो जाता है।
पायासी राजा की भिन्न भिन्न परीक्षाओं एवं युक्तियों से ज्ञात होता है कि वह आत्मा को भूतों के समान ही इन्द्रियों का विषय मानकर आत्मा संबंधी शोध में लीन था; और आत्मा को एक भौतिक तत्त्व मानकर ही उसने तद्विषयक खोज जारी रखी। इसी लिए उसे निराशा का मुख देखना पड़ा। यदि वह आत्मा को एक अमूर्त तत्त्व मानकर उसे ढूढ़ने का प्रयत्न करता तो उसकी शोध की प्रक्रिया और ही होती। रायपसेाइय के वर्णन के अनुसार पएसी का दादा भी उसी की भाँति नास्तिक था । इससे ज्ञात होता है कि आत्मा को भौतिक समझ कर उसके विषय में विचार करने वाले व्यक्ति अति प्राचीन काल में भी थे। इस बात का समर्थन पूर्वोक्त तैत्तिरीय उपनिषद् से भी होता है। वहां आत्मा को अन्नमय' कहा गया है । इसके अतिरिक्त उपनिषद् से भी प्राचीन ऐतरेय आरण्यक में आत्मा के विकास के प्रदर्शक जो सोपान दिखाये गये हैं, उससे भी यह बात प्रमाणित होती है कि आत्मविचारणा में आत्मा को भौतिक मानना उसका प्रथम सोपान है । उस आरण्यकर में वनस्पति, पशु एवं मनुष्य के चैतन्य के पारस्परिक संबंध का विश्लेषण किया गया है और यह बताया गया है कि औषधि - वनस्पति और ये जो समस्त पशु एवं मनुष्य हैं, उनमें आत्मा उत्तरोत्तर विकसित होता है । कारण यह है कि औषधि और वनस्पति में तो वह केवल रस रूप में ही दिखाई देता है किन्तु पशुओं में चित्त भी दृष्टिगोचर होता है और
१ तैत्तिरीय २.१.२
२ ऐतरेय आरण्यक २.३.२
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