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मन से भी भिन्न प्रज्ञात्मा का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए यह कहा गया। इस बात की भी प्रेरणा की गई है कि इन्द्रियों के विषयों का नहीं परन्तु इन्द्रियों के विषयों के ज्ञाता प्रज्ञात्मा का ज्ञान प्राप्त किया जाए। मन का ज्ञान आवश्यक नहीं किंतु मनन करने वाले का ज्ञान आवश्यक है। इस प्रकार कौषीतकी उपनिषद् में इस बात पर जोर दिया गया है कि इन्द्रियादि साधनों से भी पर प्रज्ञामा'-साधक को जानना चाहिए ।
कौषीतकी उपनिषत् के उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस उपनिषद् में प्रज्ञा को इन्द्रियों का अधिष्ठान माना गया है। किन्तु अभी प्रज्ञा के स्वतः प्रकाशित रूप की ओर विचारकों का ध्यान गया नहीं था। अतः सुप्तावस्था में इन्द्रियों के व्यापार के अभाव में स्व या पर का किसी भी प्रकार का ज्ञान स्वीकृत नहीं किया गया। उसी प्रकार मृत्यूपरान्त जब तक नई इन्द्रियों का निर्माण नहीं होता, तब तक प्रज्ञा भी अकिंचि
कर ही रहती है-एसा माना गया। इन्द्रियां प्रज्ञा के अधीन हैं, इस बात को मान कर भी यह स्वीकार किया गया है कि प्रज्ञा भी इन्द्रियों के बिना कुछ नहीं कर सकती। चूंकि अभी प्रज्ञा और प्राण को एक ही समझा जाता था, अतः प्राण से भी पर स्वतः प्रकाशक प्रज्ञा का स्वरूप किसी के ध्यान में न आए, यह स्वाभाविक है।
१ कौषीतकी ३.८
२ ऐसे आत्मा के ज्ञान से इन्द्र को संतोष नहीं हुआ था, और उसने प्रजापति से सुप्तावस्था के आत्मा से भी पर आत्मा का ज्ञान प्राप्त किया था, यह उल्लेख छान्दोग्य में है-८. ११, इस विषय में बृहदा० १. १५२० भी देखने योग्य है।
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