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( १५० ) महावस्तु (१.४) में उक्त प्रत्येक नरक के १६ उस्सद (उपनरक) स्वीकार किए गए हैं। इस तरह सब मिल कर १२८ नरक हो जाते हैं। किंतु पंचगतिदीपनी नामक ग्रंथ में प्रत्येक नरक के चार उस्सद बताए हैं-माल्हकूप, कुक्कुल, असिपत्तवन, नदी' (वेतरणी)।
बौद्धों ने देवलोक के अतिरिक्त प्रेतयोनि भी स्वीकार की है। इन प्रेतों की रोचक कथाएँ प्रेतवत्थु नाम के ग्रंथ में दी गई हैं। सामान्यतः प्रेत किसी विशेष प्रकार के दुष्कर्मों को भोगने के लिए उस योनि में उत्पन्न होते हैं। इन दोषों में इस प्रकार के दोष भी हैं-दान देने में ढील करना, योग्यरीति से श्रद्धापूर्वक न देना । दीघनिकाय के आटानाटियसुत्त में निम्नलिखित विशेषणों द्वारा प्रेतों का वर्णन किया गया है-चुगलखोर, खूनी, लुब्ध, चोर, दगाबाज़
आदि। अर्थात् ऐसे लोग प्रेतयोनि में जन्म ग्रहण करते हैं। पेतवत्थु ग्रंथ से भी इस बात का समर्थन होता है।
पेतवत्थु के प्रारंभ में ही यह बात कही गई है कि दान करने से दाता अपने इस लोक का सुधार करने के साथ साथ प्रेतयोनि को प्राप्त अपने संबंधियों के भव का भी उद्धार करता है।
प्रेत पूर्वजन्म के घर की दीवार के पीछे आकर खड़े रहते हैं, चौक में अथवा मार्ग के किनारे आकर भी खड़े हो जाते हैं। जहां बड़े भोज की व्यवस्था हो, वहां वे विशेष रूप से पहुंचते हैं। लोग उनका स्मरण कर उन्हें कुछ नहीं देते, तो वे दुःखी होते हैं । जो उन्हें याद कर उन्हें देते हैं, वे उनके आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। प्रेत लोक में व्यापार अथवा कृषि की व्यवस्था नहीं है जिससे उन्हें भोजन मिल सके। उनके निमित्त इस लोक में
१ ERE-Cosmogomy & Cosmalogy-शब्द देखें । महायानमान्य वर्णन अभिधर्मकोष चतुर्थ स्थान में देखें ।
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