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योगदर्शन में विद्या का लक्षण है- अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्म वस्तु में नित्य, शुचि, शुभ और आत्मबुद्धि करना । १
जैन दर्शन में बंधकाररण की चर्चा दो प्रकार से की गई हैशास्त्रीय और लौकिक । कर्मशास्त्र में बंध के कारणों की जो चर्चा है, वह शास्त्रीय प्रकार है। वहां कषाय और योग ये दोनों बंध के कारण माने गए हैं । इन का ही विस्तार कर मिध्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार और कहीं उनमें प्रमाद को सम्मिलित कर पांच कारण गिनाए गए हैं । इनमें से मिथ्यात्व दूसरे दर्शनों में विद्या - मिथ्याज्ञान- अज्ञान के नाम से प्रसिद्ध है ।
लोकानुसरण करते हुए जैनागमों में
राग, द्वेष और मोह को भी संसार का कारण माना गया । 3 पूर्वोक्त कषाय के चार भेद हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । राग और द्वेष इन दोनों में भी उन चारों का समन्वय हो जाता है । राग में माया और लोभ, तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश है । इस राग व द्वेष के मूल में भी मोह है, यह बात अन्य दार्शनिकों के समान जैनागमों में भी स्वीकार की गई है।
इस प्रकार सब दर्शन इस विषय में सहमत हैं कि मिध्यात्वमिथ्याज्ञान- मोह - विपर्यय-अविद्या आदि विविध नामों से विख्यात
१ योगदर्शन २. ५.
२
तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन ( पं० सुखलाल जी ) ८.१.
3 उत्तराध्ययन २१. १९; २३.४३; २८. २०; २९. ७१
४ 'दोहि ठाणेहिं पापकम्मा बंधति रागेण य दोसेण य । रागे दुविहे पणते । ... माया य लोभे य । दोसे दुविहे कोहे य माणे य'
स्थानांग २. २.
५ उत्तरा० ३२. ७
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