Book Title: Atmamimansa
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 134
________________ ( १२५ ) न्यायवार्तिककार ने कर्म के विपाक काल को अनियत वर्णित किया है। यह कोई नियम नहीं कि कर्म का फल इसी लोक में या परलोक में अथवा जात्यन्तर में ही मिलता है। कर्म अपना फल उसी दशा में देते हैं जब सहकारी कारणों का सन्निधान हो तथा सन्निहित कारणों का भी कोई प्रतिबंधक न हो। यह निर्णय करना कठिन है कि यह शर्त कब पूरी हो। इस चर्चा के अन्तर्गत यह भी बताया गया है कि अपने ही विपच्यमान कर्म के अतिशय द्वारा अन्य कर्म की फल शक्ति का प्रतिबंध संभव है। समान भोग वाले अन्य प्राणियों के विपच्यमान कर्म द्वारा भी कर्म की फल शक्ति के प्रतिबंध की संभावना है। ऐसी अनेक संभावनाओं का उल्लेख करने के पश्चात् वार्तिककार ने लिखा है कि कर्म की गति दुर्विज्ञेय है, मनुष्य इस प्रक्रिया के पार का पता नहीं लगा सकता।' ___ जयंत ने न्यायमंजरी में कहा है कि विहित कर्म के फल का कालनियम निर्धारित नहीं किया जा सकता। कुछ विहित कर्म ऐसे हैं जिनका फल तत्काल मिलता है-जैसे कारीरी यज्ञ का फल वृष्टि, कुछ विहित कर्मों का फल ऐहिक होते हुए भी काल-सापेक्ष है-जैसे पुत्रेष्टि का फल पुत्र । तथा ज्योतिष्टोम आदि का फल स्वर्गादि परलोक में ही मिलता है। किंतु सामान्यरूपेण यह नियम निश्चित किया जा सकता है कि निषिद्ध कर्म का फल तो परलोक में ही मिलता है। ___योग दर्शन में कर्माशय और वासना में भेद किया गया है। एक जन्म में संचित कर्म को कर्माशय कहते हैं तथा अनेक जन्मों के कमों के संस्कार की परंपरा को वासना कहते हैं। कर्माशय का १ न्यायवा० ३. २. ६१ २ न्यायमंजरी पृ० ५०५, २७५ 3 योगभाष्य २. १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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