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( १३५ ) वर्षा न हो तो उसका सारा श्रम धूल में मिल जाता है। फिर यह भी देखा जाता है कि नैतिक नियमों का पालन करने पर भी संसार में व्यक्ति दुःखी रहता है और दूसरा दुराचारी होने पर भी सुखी । यदि सदाचार से सुख की प्राप्ति होती हो तो सदाचारी को सदाचार के फलस्वरूप सुख तथा दुराचारी को दुराचार का फल दुःख साक्षात् और तत्काल क्यों नहीं मिलता ? नवजात शिशु ने ऐसा क्या काम किया है कि वह जन्म लेते ही सुखी या दुःखी हो जाता है ? इत्यादि प्रश्नों पर विचार करते हुए जब मनुष्य ने कर्म के संबंध में गहन विचार किया तब इस कल्पना ने जन्म लिया कि कर्म केवल साक्षात् क्रिया नहीं अपितु अदृष्ट संस्कार रूप भी है। इसके साथ ही परलोक-चिन्ता संबद्ध हो गई। यह माना जाने लगा कि मनुष्य के सुख दुःख का आधार केवल उसकी प्रत्यक्ष क्रिया नहीं, परन्तु इसमें परलोक या पूर्वजन्म की क्रिया-जो संस्कार अथवा अदृष्टरूपेण उसकी आत्मा से बद्ध है का भी एक महत्त्वपूर्ण भाग है। यही कारण है कि प्रत्यक्ष सदाचार के अस्तित्व में भी मनुष्य पूर्वजन्म के दुराचार का फल दुःखरूपेण भोगता है और प्रत्यक्ष दुराचारी होने पर भी पूर्वजन्म के सदाचार का फल सुखरूपेण भोगता है। बालक पूर्वजन्म के संस्कार अथवा कर्म अपने साथ लेकर आता है, अतः इस जन्म में कोई कर्म न करने पर भी वह सुख-दुःख का भागी बनता है। इस कल्पना के बल पर प्राचीन काल से लेकर आज तक के धार्मिक गिने जाने वाले पुरुषों ने अपने सदाचार में निष्ठा और दुराचार की हेयता स्वीकार की है। उन्होंने मृत्यु के साथ जीवन का अन्त नहीं माना, किन्तु, जन्म जन्मान्तर की कल्पना कर इस आशा से सदाचार में निष्ठा स्थिर रखी है कि कृत कर्म का फल कभी तो मिलेगा ही, और उन्होंने परलोक के विषय में भिन्न भिन्न कल्पनाएँ की हैं।
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