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निवास करते हैं। भूलोक के समस्त द्वीपों में भी पुण्यात्मा देवों का निवास है । सुमेरु पर्वत पर देवों की उद्यान भूमियां हैं, सुधर्मा नामक देव सभा है, सुदर्शननामा नगरी है और उसमें वैजयन्त प्रासाद है । अन्तरिक्षलोक के देवों में ग्रह, नक्षत्र और तारों का समावेश है । स्वर्गलोक में महेन्द्र में छे देव निकायों का निवास है - त्रिदश, अभिष्वात्ता, याम्या, तुषित, अपरिनिर्मितवशवर्ती, परिनिर्मित वशवर्ती । इससे ऊपर महतिलोक अथवा प्रजापतिलोक में पाँच देव निकाय हैं—कुमुद, ऋभु, प्रतर्दन, अंजनाभ, प्रचिताभ । ब्रह्मा के प्रथम जनलोक में चार देवनिकाय हैं - ब्रह्मपुरोहित, ब्रह्मकायिक, ब्रह्ममहाकायिक, अमर ब्रह्मा के द्वितीय तपोलोक में तीन देव निकाय हैं- आभास्वर, महाभास्वर, सत्यमहाभास्वर । ब्रह्मा के तृतीय सत्यलोक में चार देवनिकाय हैंअच्युत, शुद्धनिवास, सत्याभ, संज्ञासंज्ञी ।
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इन सब देवलोकों में बसने वालों की आयु दीर्घ होते हुए भी परिमित है । कर्मक्षय होने पर उन्हें नया जन्म धारण करना पड़ता है ।
वैदिक असुरादि
सामान्यतः देवों और मनुष्यों के शत्रुओं को वेद में असुर, राक्षस, पिशाच आदि नाम से प्रतिपादित किया गया है । परिण और वृत्र इन्द्र के शत्रु थे, दास और दस्यु आर्य प्रजा के शत्रु थे । किंतु दस्यु शब्द का प्रयोग अन्तरीक्ष के दैत्यों अथवा असुरों के अर्थ में भी किया गया है। दस्युओं को वृत्र के नाम से भी वर्णित किया गया है । सारांश यह है कि वृत्र, पणि, असुर, दस्यु, दास नाम की कई जातियां थीं । उन्हें ही कालान्तर में राक्षस, दैत्य, असुर पिशाच का रूप दिया गया। वैदिक काल के लोग उनके नाश के निमित्त देवों से प्रार्थना किया करते थे ।
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