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( १३३ ) के बाद भारत के समस्त धमों में इस भावना को समर्थन प्राप्त हुश्रा कि कुशल कर्मों का फल समस्त जीवों को मिले। .
किंतु जैनागम में इस विचार अथवा भावना को स्थान नहीं मिला। जैन धर्म में प्रेतयोनि नहीं मानी गई है, संभव है कि कर्मफल के असंविभाग की जैन मान्यता का यह भी एक आधार हो। जैन शास्त्रीय दृष्टि तो यही है कि जो जीव कर्म करे, उसे ही उसका फल भोगना पड़ता है। कोई दूसरा उसमें भागीदार नहीं बन सकता । किंतु लौकिक दृष्टि का अनुसरण करते हुए आचार्य हरिभद्र आदि ने यह भावना अवश्य व्यक्त की है कि मैंने जो कुशल कर्म किया हो तो उसका लाभ अन्य जीवों को भी मिले और वे सुखी हो।
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१ संसारमावन्न परस्स अट्ठा साहारणं जं च करेइ कम्म।
कम्मरस ते तस्स उ वेयकाले ण बंधवा बंधवयं उर्वति॥ उत्तरा०४.४ माया पिया णुसा भाता भज्जा पुत्ता य ओरसा।
नालं ते मम ताणाय लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥ उत्तरा० ६. ३., उत्तरा० १४. १२, २०. २३-३७.
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