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हुए यह निष्कर्षं निकलता है कि स्मार्त धर्मानुसार एक के कर्म का फल दूसरे को मिल सकता है । बौद्ध भी इस मान्यता से सहमत हैं। हिन्दुओं के समान बौद्ध भी प्रेतयोनि को मानते हैं । अर्थात् प्रेत के निमित्त जो दान पुण्यादि किया जाता है, प्रेत को उसका फल मिलता है । मनुष्य मर कर तिर्यंच, नरक अथवा देवयोनि में उत्पन्न हुआ हो तो उसके उद्देश्य से किए गए पुण्य कर्म का फल उसे नहीं मिलता, किंतु चार प्रकार के प्रेतों में केवल परदत्तोपजीवी प्रेतों को ही फल मिलता है। यदि जीव परदत्तोपजीवी प्रेतावस्था में न हो तो पुण्यकर्म के करने वाले को ही उसका फल मिलता है, अन्य किसी को भी नहीं मिलता । पुनश्च कोई पाप कर्म करके यदि यह अभिलाषा करे कि उसका फल प्रेत को मिल जाए, तो ऐसा कभी नहीं होता । बौद्धों का सिद्धान्त है कि कुशल कर्म का ही संविभाग हो सकता है, अकुशल का नहीं। राजा मिलिन्द ने श्राचार्य नागसेन से पूछा कि क्या कारण है कि कुशल का ही संविभाग हो सकता है, कुशल का नहीं ? आचार्य ने पहले तो यह उत्तर दिया कि आपको ऐसा प्रश्न नहीं पूछना चाहिए । फिर यह बताया कि पाप कर्म में प्रेत की अनुमति नहीं, अतः उसे उसका फल नहीं मिलता। इस उत्तर से भी राजा सन्तुष्ट न हुआ । तब नागसेन ने 'कहा कि कुशल परिमित होता है अतः उसका संविभाग संभव नहीं किन्तु कुशल विपुल होता है अतः उसका संविभाग हो सकता है । " महायान बौद्ध बोधिसत्त्व का यह आदर्श मानते हैं कि वे सदा ऐसी कामना करते हैं कि उनके कुशल कर्म का फल विश्व के समस्त जीवों को प्राप्त हो । अतः महायान मत के प्रचार
मिलिन्द प्रश्न ४. ८. ३० - ३५, पृ० २८८; कथावत्थु ७. ६. ३. पृ० ३४८ प्रेतों की कथाओ के संग्रह के लिए पेतवत्थु तथा विमला चरण लाकृत Buddhist Conception of spirits देखे ।
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