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( १३१ ) वह उदीरणा और संक्रमण में असमर्थ होता है। किंतु इस अवस्था में उद्वर्तन और अपवर्तन संभव हैं।
१० निकाचना-कर्म की वह अवस्था निकाचना कहलाती है जिसमें उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण और उदीरणा संभव ही न हों। जिस रूप में इस कर्म का बंधन हुआ हो, उसी रूप में उसे अनिवार्य रूपेण भोगना ही पड़ता है। ___ अन्य ग्रंथों में कर्म की इन अवस्थाओं का वर्णन शब्दशः दृष्टिगोचर नहीं होता, किंतु इनमें से कुछ अवस्थाओं से मिलते जुलते विवरण अवश्य मिलते हैं।
योगदर्शन सम्मत नियतविपाकी कर्म जैन सम्मत निकाचित कर्म के सदृश समझना चाहिए। उसकी आवापगमन प्रक्रिया जैन सम्मत संक्रमण है। योगदर्शन में अनियतविपाकी कुछ ऐसे भी कर्म हैं जो बिना फल दिए ही नष्ट हो जाते हैं। इनकी तुलना जैनों के प्रदेशोदय से हो सकती है। योगदर्शन में क्लेश की चार अवस्थाएँ मान्य हैं-प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न, उदारा । उपाध्याय यशोविजय जी ने उनकी तुलना जैन सम्मत मोहनीय कर्म की सत्ता, उपशम-क्षयोपशम, विरोधी प्रकृति के उदय से व्यवधान और उदय से क्रमशः3 की है। कर्मफल का संविभाग __ अब इस विषय पर विचार करने का अवसर है कि एक व्यक्ति अपने किए हुए कर्म का फल दूसरे व्यक्ति को दे सकता है अथवा नहीं। वैदिकों में श्राद्धादि क्रिया का जो प्रचार है, उसे देखते
१ योगदर्शन भाष्य २. १३ । २ योगदर्शत २.४। 3 योगदर्शन (पं० सुखलाल जी) प्रस्तावना पृ० ५४.
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