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प्रकार हो जाते हैं - प्रकृति बंध, प्रदेश बंध, स्थिति बंध और अनुभाग बंध | जब तक बंध न हो, तब तक कर्म की अन्य किसी भी अवस्था का प्रश्नही उपस्थित नहीं होता ।
२ सत्ता -बंध में आए हुए कर्म पुद्गल अपनी निर्जरा होने तक आत्मा से संबद्ध रहते हैं, इसे ही उसकी सत्ता कहते हैं । विपाक प्रदान करने के बाद कर्म की निर्जरा हो जाती है । प्रत्येक कर्म अबाधाकाल के व्यतीत हो जाने पर ही विपाक देता है । अर्थात् अमुक कर्म की सत्ता उसके अबाधाकाल तक होती है ।
३ उद्वर्तन अथवा उत्कर्षण - आत्मा से बद्ध कर्मों के स्थिति और अनुभाग बंध का निश्चय बंध के समय विद्यमान कषाय की मात्रा के अनुसार होता है। किंतु कर्म के नवीन बंध के समय उस स्थिति तथा अनुभाग को बढ़ा लेना उद्वर्तन कहलाता है ।
४ अपवर्तन अथवा अपकर्षरण - कर्म के नवीन बंध के समय प्रथम बद्ध कर्म की स्थिति और उसके अनुभाग को कम कर लेना अपवर्तन कहलाता है ।
उद्वर्तन तथा अपवर्तन की मान्यता से सिद्ध होता कि कर्म की स्थिति और उसका भोग नियत नहीं हैं। उसमें परिवर्तन हो सकता है। किसी समय हमने बुरा काम किया, किंतु बाद में यदि अच्छा काम करें तो उस समव पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति और उसके रस में कमी हो सकती है। इसी प्रकार सत् कार्य करके बांधे गए सत् कर्म की स्थिति को भी असत् कार्य द्वारा कम किया जा सकता है । अर्थात् संसार की वृद्धि हानि का धार पूर्वकृत कर्म की अपेक्षा विद्यमान अध्यवसाय पर विशेषतः निर्भर है ।
५. संक्रमण – इस विषय में विशेषावश्यक में विस्तार पूर्वक '
गाथा १९३८ से
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