________________
( १२७ ) शीघ्र ही हो जाता है। किंतु कुशल कर्म विपुल है, अतः उसका विपाक दीर्घकाल में होता है। यद्यपि कुशल और अकुशल दोनों का फल परलोक में मिलता है, तथापि अकुशल के अधिक सावध होने के कारण उसका फल यहाँ भी मिल जाता है। पाप की अपेक्षा पुण्य विपुलतर क्यों है, इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि पाप करने के पश्चात् मनुष्य को पश्चात्ताप होता है
और वह कहता है कि अरे ! मैंने पाप किया। इससे पाप की वृद्धि नहीं होती। किंतु शुभ काम करने के बाद मनुष्य को पश्चात्ताप नहीं होता बल्कि प्रमोद-आनन्द होता है। अतः उसका पुण्य उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त करता है।
बौद्धों के मत में कृत्य के आधार पर कर्म के जो चार भेद किए गए हैं उनमें एक जनक कर्म है और दूसरा उसका उत्थंभक है। जनक कर्म नए जन्म को उत्पन्न कर विपाक प्रदान करता है, किन्तु उत्थंभक अपना विपाक प्रदान न कर दूसरों के विपाक में अनुकूल-सहायक बन जाता है। तीसरा कर्म उपपीड़क है जो दूसरे कर्मों के विपाक में बाधक बन जाता है। चौथा कर्म उपघातक है जो अन्य कमों के विपाक का घात कर अपना ही विपाक प्रगट करता है।
पाकदान के क्रम को लक्ष्य में रख कर बौद्धों में कर्म के ये चार प्रकार माने गए हैं-गरुक, बहुल अथवा आचिण्ण, आसन्न तथा अभ्यस्त । इनमें गरुक तथा बहुल दूसरों के विपाक को रोक कर पहले अपना फल प्रदान करते हैं। आसन्न का अर्थ है मृत्यु के समय किया गया। वह भी पूर्व कर्म की अपेक्षा अपना फल
१ मिलिन्द प्रश्न ४.८. २४-२९, प.० २८४. २ मिलिन्द प्रश्न ३.३६. ३ अभिधम्मत्व संगह ५.१९, विसुद्धिमग्ग १९.१६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org