Book Title: Atmamimansa
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 135
________________ ( १२६ ) विपाक दो प्रकार का है-अदृष्टजन्मवेदनीय और दृष्टजन्मवेदनीय । जिसका विपाक दूसरे जन्म में मिले वह अदृष्टजन्मवेदनीय तथा जिसका विपाक इस जन्म में मिल जाए वह दृष्टजन्मवेदनीय कहलाता है। विपाक के तीन भेद हैं :-जाति अथवा जन्म, आयु और भोग। अर्थात् अदृष्टजन्मवेदनीय के तीन फल हैं:नवीन जन्म, उस जन्म की आयु, और उस जन्म का भोग। किंतु दृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय का विपाक आयु व भोग अथवा केवल भोग है जन्म नहीं। यदि यहां भी जन्म का विपाक स्वीकार किया जाए तो वह अदृष्टजन्मवेदनीय हो जाएगा। नहुष देव था, अर्थात् उसकी देवरूप में जन्म और देवायु दोनों बातें जारी थी। फिर भी कुछ समय के लिए सर्प बन कर उसने दुख का भोग किया और तदन्तर वह पुनः देव बन गया। यह दृष्टजन्मवेदनीय भोग का उदाहरण है। नन्दीश्वर ने मनुष्य होते हुए भी देवायु और देव भोग प्राप्त किए, किंतु उसका मनुष्य जन्म जारी रहा। वासना का विपाक असंख्य जन्म, आयु और भोग माने गए हैं। कारण यह है कि वासना की परंपरा अनादि है। जिस प्रकार योग' दर्शन में कृष्ण कर्म की अपेक्षा शुक्ल कर्म को अधिक बलवान् माना गया है और कहा गया है कि शुक्ल कर्म का उदय होने पर कृष्ण कर्म फल दिए बिना ही नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार बौद्धौं ने भी अकुशल कर्म की अपेक्षा कुशल कर्म को अधिक बलवान् माना है। किंतु वे कुशल कर्म को अकुशल कर्म का नाशक नहीं मानते, इस लोक में पापी को अनेक प्रकार के दण्ड एवं दुःख भोगने पड़ते हैं और पुण्यशाली को अपने पुण्यकार्यों का फल प्रायः इसी लोक में नहीं मिलता। बौद्धों ने इसका कारण यह बताया है कि पाप परिमित है अतः उसके विपाक का अन्त १ योग दर्शन २. १३ पृ० १७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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