Book Title: Atmamimansa
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

View full book text
Previous | Next

Page 133
________________ ( १२४ ) अथवा अन्य जन्म में किंवा दोनों में कृत कर्म को भोगना पड़ता है। जैन दृष्टि के आधार पर जिस वस्तु स्थिति का ऊपर वर्णन किया गया है, उसकी तुलना में अन्य ग्रंथों में उपलब्ध मान्यताओं का भी यहां उल्लेख करना उचित प्रतीत होता है। योगदर्शन में कर्म का विपाक तीन प्रकार का बताया गया है :-जाति, आयु और भोग । जैन सम्मत नाम कर्म के विपाक की तुलना, योग सम्मत जाति विपाक से, आयुकर्म के विपाक की तुलना आयु विपाक से की जा सकती है। योग दर्शन के अनुसार भोग का अर्थ है-सुख, दुःख और मोह। अतः जैन सम्मत वेदनीय कर्म के विपाक की इस भोग से तुलना संभव है। योग दर्शन में मोह का अर्थ व्यापक है। उस में अप्रतिपत्ति और विप्रतिपत्ति दोनों का समावेश है। अतः जैनसम्मत ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और मोहनीय कर्म के विपाक योगदर्शन सम्मत मोह के सदृश हैं। विपाक के संबंध में जैन मत में जैसे प्रत्येक कर्म का विपाक नियत है वैसे योग दर्शन में नियत नहीं है। योग मत के अनुसार संचित समस्त कर्म मिल कर उक्त जाति, आयु, भोगरूप विपाक का कारण बनते हैं। १ स्थानागसूत्र ७७. २ योग दर्शन २. १३. 3 योग भाष्य २. १३ ४ "तस्माज्जन्मप्रायणान्तरे कृतः पुण्यापुण्यकर्माशयप्रचयो विचित्र: प्रधानोपसर्जनभावेनावस्थितः प्रायेणाभिव्यक्तः एकप्रघट्टकेन मिलित्वा मरणं प्रसाध्य संमूछित एकमेव जन्म करोति तच्च जन्म तेनैव कर्मणा लब्धायुष्कं भवति । तस्मिन्नायुषि तेनैव कर्मणा भोगः संपद्यते इति, असौ कर्माशयो जन्मायुर्भोगहेतुत्वात् त्रिविपाकोऽभिधीयते।” योग भाष्य २. १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162