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काल पर्यन्त कभी भी विच्छिन्न नहीं होता, वे ध्रुवोदया और जिनका उदय विच्छिन्न हो जाता है और फिर उदय में आती हैं उन्हें ध्रुवोदय' कहते हैं ।
सम्यक्त्व आदि गुणों की प्राप्ति होने से पूर्व उक्त प्रकृतियों में से जो प्रकृतियां समस्त संसारी जीवों में विद्यमान होती हैं, उन्हें ध्रुवसत्ताका और जो नियमतः विद्यमान नहीं होतीं, उन्हें, अध्रुवसत्ताका कहते हैं । "
उक्त प्रकृतियों के दो विभाग इस प्रकार भी किए जाते हैं:अन्य प्रकृति के बंध अथवा उदय किंवा इन दोनों को रोक कर जिस प्रकृति का बंध अथवा उदय किंवा दोनों हों, उसे परावर्तमाना और जो इससे विपरीत हो वह अपर वर्तमाना कहलाती है । 3
उक्त प्रकृतियों में से कुछ ऐसी हैं जिनका उदय उस समय ही होता है जब जीव नवीन शरीर को धारण करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान को जा रहा हो । अर्थात् उनका उदय विग्रहगति में ही होता है। ऐसी प्रकृतियों को क्षेत्रविपाकी कहते हैं। कुछ ऐसी प्रकृतियां हैं जिनका विपाक जीव में होता हैं, उन्हें जीव विपाकी कहते हैं । कुछ प्रकृतियों का विपाक नर-नारकादि भव सापेक्ष है, उन्हें भवविपाकी कहते हैं । कुछ का विपाक जीवसंबद्ध शरीरादि पुद्गलों में होता है, उन्हें पुद्गलविपाकी कहते हैं ।
जिस जन्म में कर्म का बंधन हुआ हो उसी में ही उस का भोग हो, यह कोई नियम नहीं है । किन्तु उसी जन्म में
१ पंचम कर्मग्रंथ गाथा ६- ७
२ पंचम कर्म ग्रंथ गा० ८- ९.
३ पंचम कर्म ग्रंथ १८ – १९
४ पंचम कर्म ग्रंथ गा० १९ -- २१.
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