Book Title: Atmamimansa
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 130
________________ ( १२१ ) प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्धि ये नव दर्शनावरण हैं। सात और असात दो प्रकार का वेदनीय होता है। मिथ्यात्व; अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभः प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ-ये १६ कषाय; स्त्री, पुरुष, नपुंसक ये तीन वेद, तथा हास्य, रति, अरती, शोक, भय, जुगुप्सा ये छे हास्यादि षटक, इस प्रकार नव नोकषाय ये सब मिले कर मोहनीय के २६ भेद हैं। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव ये आयु के चार प्रकार हैं। नाम कर्म के ६७ भेद हैं :-नारक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देव ये चार गति; एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पंचेन्द्रिय ये पांच जाति, औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ये पांच शरीरः औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीनों के अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संहनन, ऋषभनाराच संहनन, नाराच सं०, अर्धनाराच सं०, कीलिका सं०, सेवात सं० ये छे संहनन; समचतुरस्र, न्यग्रोध, सादि, कुब्ज वामन, हुंड ये छे संस्थान; वर्ण, रस, गंध, स्पर्श ये वर्णादि चार नारकादि चार आनुपूर्वीः प्रशस्त एवं अप्रशस्त दो विहायोगति; परघात, उच्छ्वास आतप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थ, निर्माण, उपघात ये आठ प्रत्येक प्रकृति; त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति ये त्रसदशक; और इसके विपरीत स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, असुभग, दुःस्वर, अनादेय, अयश कीर्ति ये स्थावरदशक । गोत्र के दो भेद हैं-उच्च गोत्र, नीच गोत्र । दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय तथा वीर्यान्तराय ये पांच अन्तराय के भेद हैं। मिथ्यात्व मोह का ऊपर एक भेद गिना है, यदि उसके तीन भेद गिने जाएँ तो उदय और उदीरणा की अपेक्षा से १२२ प्रकृति होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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