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( १०४ ) साथ नहीं रहता और जन्म के अवसर पर नया उत्पन्न होता है। किंतु लिंग शरीर कायम रहता है और एक जगह से दूसरी जगह गति करता है। जैनों के अनुसार अनादि काल से संबद्ध कार्मणशरीर मोक्ष के समय निवृत्त हो जाता है, इसी प्रकार सांख्य मत में भी मोक्ष के समय लिंगशरीर की निवृत्ति हो जाती है। जैनों के मत में कार्मण शरीर और रागद्वेष आदि भाव अनादि काल से साथ साथ ही हैं, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं। इसी प्रकार सांख्य मत में लिंगशरीर भी भाव के बिना नहीं होता
और भाव लिंगशरीर के बिना नहीं होते। जैन मत में कार्मण शरीर प्रतिघात रहित है, सांख्य मत में लिंग शरीर अव्याहत गति वाला है, उसे कहीं भी रुकावट का सामना नहीं करना पड़ता । जैनमतानुसार कार्मण शरीर में उपभोग की शक्ति नहीं है, किंतु औदारिक शरीर इन्द्रियों द्वारा उपभोग करता है। सांख्य मत में भी लिंग शरीर उपभोग" रहित है। __यद्यपि सांख्य मत में रागादि भाव प्रकृति के विकार हैं, लिंग शरीर भी प्रकृति का विकार है और अन्य भौतिक पदार्थ भी प्रकृति के ही विकार हैं, तथापि इन सभी विकारों में विद्यमान जातिगत भेद से सांख्य इन्कार नहीं करते। उन्होंने तीन प्रकार के सर्ग माने हैं :--प्रत्ययसर्ग, तान्मात्रिकसर्ग, भौतिक सर्ग। रागद्वेषादि भाव प्रत्ययसर्ग में समाविष्ट हैं और लिंगशरीर तान्मात्रिक' सर्ग
१ माठर का० ४४, ४०; योगदर्शन में भी यह बात मान्य हैयोगसूत्र-भाष्य भास्वती २. १३ ।
२ माठर वृत्ति ४४। ३ सांख्य का० ४१ । ४ सांख्य तत्त्वकौ० ४० ।
" सांख्य का० ४० । ६ सांख्य का० ४६ ।
७ सांख्य तत्त्वकौ० ५२ ।
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