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भेद की उपेक्षा करने के पश्चात् यदि जैनों और सांख्यों की संसार एवं मोक्ष विषयक प्रक्रिया की समानता पर विचार किया जाए तो तो ज्ञात होगा कि दोनों की कर्मप्रक्रिया में कुछ भी अन्तर नहीं ।
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जैन मतानुसार मोह, राग, द्वेष इन सब भावों के कारण अनादि काल से आत्मा के साथ पौद्गलिक कार्मण शरीर का संबंध है । भावों व कार्मणशरीर में बीजाङ्कुरवत् कार्यकारण भाव है । एक की उत्पत्ति में दूसरा कारणरूपेण विद्यमान रहता है, फिर भी अनादिकाल से दोनों ही आत्मा के संसर्ग में हैं । इस बात का निर्णय अशक्य है कि दोनों में प्रथम कौन है । इसी प्रकार सांख्य मत में लिंगशरीर अनादि काल से 'पुरुष के संसर्ग में है । इस लिंगशरीर की उत्पत्ति राग, द्वेष, मोह जैसे भावो से होती है और भाव तथा लिंगशरीर में भी बीजाङकुर के समान ही कार्यकारण भाव है । जैसे जैन औदारिक-स्थूलशरीर को कार्मण शरीर से पृथकू मानते हैं, वैसे ही सांख्य भी लिंग - सूक्ष्मशरीर को स्थूल शरीर से भिन्न मानते हैं । जैनों के मत में स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही शरीर पौद्गलिक हैं, सांख्य मत में ये दोनों ही प्राकृतिक हैं। जैन दोनों शरीरों को पुद्गल का विकार मान कर भी दोनों की वर्गणाओं को भिन्न भिन्न मानते हैं । सांख्यों ने एक को तान्मान्त्रिक तथा दूसरे को मातापितृजन्य माना है । जैनों के मत में मृत्यु के समय औदारिक शरीर अलग हो जाता है और जन्म के समय नवीन उत्पन्न होता है । किंतु कार्मण शरीर मृत्यु के समय एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन करता है और इस प्रकार विद्यमान रहता है । सांख्य मान्यता के अनुसार भी मातापितृजन्य स्थूल शरीर मृत्यु के समय
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१ सांख्य का० ५२ की माठर वृत्ति तथा सांख्यतत्त्वकौमुदी |
२ सांख्य का० ३९ ।
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