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( १०१ ) 'अव्यक्त शरीर' भी कहते हैं। जैन कार्मण शरीर को अतीन्द्रिय मानते हैं, इसलिए वह अव्यक्त ही है।
वैशेषिक दर्शन की मान्यता नैयायिकों के समान है। प्रशस्तपाद ने जिन २४ गुणों का प्रतिपादन किया है, उनमें अदृष्ट भी एक है। यह गुण संस्कार गुण से भिन्न है। उसके दो भेद हैं धर्म और अधर्म। इससे ज्ञात होता है कि प्रशस्तपाद धर्माधर्म का उल्लेख संस्कार शब्द से न कर अदृष्ट शब्द से करते हैं। इसे मान्यता भेद न मानकर केवल नाम भेद समझना चाहिए। क्योंकि नैयायिकों के संस्कार के समान प्रशस्तपाद ने अदृष्ट को आत्मा का गुण माना है।
न्याय और वैशेषिक दर्शन में भी दोष से संस्कार, संस्कार से जन्म, जन्म से दोष और फिर दोष से संस्कार एवं जन्म, यह परंपरा बीज और अंकुर के समान अनादि मानी है। यह जैनों द्वारा मान्य भाव कर्म और द्रव्य कर्म की पूर्वोक्त अनादि परंपरा जैसी ही है।
योग और सांख्य का मत ___ योग दर्शन की कर्म प्रक्रिया की जैनदर्शन से अत्यधिक समानता है। योगदर्शन के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश ये पांच क्लेश हैं। इन पांच क्लेशों के कारण क्लिष्वृत्ति
१ "द्वे शरीरस्य प्रकृती व्यक्ता च अव्यक्ता च, तत्र अव्यक्तायाः कर्मसमाख्यातायाः प्रकृतरुपभोगात् प्रक्षयः । प्रक्षीणे च कर्मणि विद्यमानानि मूतानि न शरीरमुत्यादयन्ति इति उपपन्नोऽपवर्गः ।" न्यायवार्तिक ३. २ ६८
२ प्रशस्तपाद भाष्य पृ०, ४७, ६३७, ६४३, । न्यायमंजरी पृ० ५१३;
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