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( ११० ) शंकराचार्य ने मीमांसक सम्मत इस अपूर्व की कल्पना अथवा सूक्ष्मशक्ति की कल्पना का खंडन किया है और यह बात सिद्ध की है कि ईश्वर कर्मानुसार फल प्रदान करता है। उसने इस पक्ष का समर्थन किया है कि फल की प्राप्ति कर्म से नहीं अपितु ईश्वर से होती है।' - कर्म के स्वरूप की इस विस्तृत विचारणा का सार यही है कि भावकर्म के विषय में किसी भी दार्शनिक को आपत्ति नहीं । 'सभी के मत में राग, द्वेष और मोह भाव कर्म अथवा कम के कारण रूप हैं। जैन जिसे द्रव्यकर्म कहते हैं, उसी को अन्य दार्शनिक कर्म कहते हैं। संस्कार, वासना, अविज्ञप्ति, माया, अपूर्व इसी के नाम हैं। हम यह देख चुके हैं कि वह पुद्गल द्रव्य है, गुण है, धर्म है अथवा अन्य कोई स्वतंत्र द्रव्य है, इस विषय में दार्शनिकों का मतभेद तो है परन्तु वस्तु के संबंध में विशेष विवाद नहीं। अब हम इस कर्म अथवा द्रव्य कर्म के भेद आदि पर विचार करेंगे। कर्म के प्रकार
दार्शनिकों ने विविध प्रकार से कर्म के भेद किए हैं परन्तु पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल, शुभ-अशुभ, धर्म-अधर्म रूप भेद सभी को मान्य हैं। अतः हम कह सकते हैं कि कर्म के पुण्य-पाप अथवा शुभ-अशुभ रूप भेद प्राचीन हैं और कर्म विचारणा के प्रारंभिक काल में ही दो भेद हुए होंगे। प्राणी जिस कर्म के फल को अनुकूल अनुभव करता है वह पुण्य आर जिसके फल को प्रतिकूल समझता है वह पाप । इस प्रकार के भेद उपनिषद्,२
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ब्रह्मसूत्र शंकर भाष्य ३.२.३८-४१. २ बृहदारण्यक ३.२.१३; प्रश्न ३.७.
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