Book Title: Atmamimansa
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 118
________________ ( १०६ ) मीमांसकों के इस अपूर्व की तुलना जैनों के भाव कर्म से इस दृष्टि से की जा सकती है कि दोनों को अमूर्त माना गया है । किन्तु वस्तुतः पूर्व जैनों के द्रव्यकर्म के स्थान पर है। मीमांसक इस क्रम को मानते हैं : -कामनाजन्य कर्म — यागादि प्रवृत्ति और यागादि प्रवृत्तिजन्य अपूर्वं । अतः कामना या तृष्णा को भावकर्म, यागादि प्रवृत्ति को जैन सम्मत योग-व्यापार और पूर्व को द्रव्य कर्म कहा जा सकता है । पुनश्च मीमांसकों के मतानुसार अपूर्व एक स्वतंत्र पदार्थ है । अतः यही उचित प्रतीत होता है कि उसे द्रव्य कर्म के स्थान पर माना जाए। यद्यपि द्रव्यकर्म अमूर्त नहीं तथापि अपूर्व के समान अतीन्द्रिय तो है ही । कुमारिल इस अपूर्व के विषय में भी एकान्त आग्रह नहीं करते । यज्ञफल को सिद्ध करने के लिए उन्होंने पूर्व का समर्थन तो किया है, किंतु इस कर्मफल की उपपत्ति अपूर्व के बिना भी उन्होंने स्वयं की है। उनका कथन है कि कर्म द्वारा फल ही सूक्ष्म शक्तिरूपेण उत्पन्न हो जाता है। किसी भी कार्य की उत्पत्ति हठात् नहीं होती । किंतु वह शक्तिरूप में सूक्ष्मतम सूक्ष्मतर और सूक्ष्म होकर बाद में स्थूल रूप से प्रगट होता है । जिस प्रकार दूध में खटाई मिलाते ही दही नहीं बन जाता, परंतु अनेक प्रकार के सूक्ष्म रूपों को पार कर वह अमुक समय में स्पष्ट रूपेण दही के आकार में व्यक्त होता है, उसी प्रकार यज्ञ कर्म का स्वर्गादि फल अपने सूक्ष्मरूप में तत्काल उत्पन्न होकर बाद में काल का परिपाक होने पर स्थूल रूप से प्रगट होता है । २ १ न्यायावतारवार्तिक में मैने इस दृष्टि से तुलना की है । टिप्पण पृ० १८१. २ “सूक्ष्मशक्त्यात्मकं वा तत् फलमेवोपजायते” —— तंत्रवा०पू०३९५, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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