________________
( ११८ )
होने पर परमाणुओं की अधिक संख्या का ग्रहण होता है और कम होने पर कम संख्या का । इसे प्रदेश बंध कहते हैं । गृहीत परमाणुओं का भिन्न भिन्न ज्ञानावरण आदि प्रकृतिरूप में परिणत होना प्रकृतिबंध कहलाता है । इस प्रकार जीव के योग के कारण परमा गुरुकंधों के परिमाण और उनकी प्रकृति का निश्चय होता है । इन्हें ही क्रमशः प्रदेश बंध और प्रकृति बंध कहते हैं । तत्त्वतः आत्मा अमूर्त है, परन्तु अनादि काल से परमाणु पुद्गल के संपर्क में रहने के कारण वह कथंचित् मूर्त है। आत्मा और कर्म के संबंध का वर्णन दूध एवं जल अथवा लोहे के गोले और अनि के संबंध के समान किया गया है। अर्थात् एक दूसरे के प्रदेशो में प्रवेश कर आत्मा और पुद्गल अवस्थित रहते हैं । सांख्यों ने भी यह स्वीकार किया है कि संसारावस्था में पुरुष और प्रकृति का बंध दूध और पानी के सदृश एकीभूत है । नैयायिक और वैशेषिकों ने आत्मा तथा धर्माधर्म का संबंध संयोगमात्र न मान कर समवायरूप माना है । उसका कारण भी यही है कि वे दोनों एकीभूत जैसे ही हैं । उन्हें पृथक् पृथक् कर बताया नहीं जा सकता, केवल लक्षणभेद से पृथक् समझा जा सकता है ।
गृहीत परमाणुओं में कर्मविपाक के काल और सुख-दु:ख विपाक की तीव्रता - मन्दता का निश्चय आत्मा की प्रवृत्ति अथवा योग व्यापार में कषाय की मात्रा के अनुसार होता है । इन्हें क्रमशः स्थिति बंध और अनुभाग बंध कहते हैं । यदि कषाय की मात्रा न हो तो कर्म परमाणु आत्मा के साथ संबद्ध नहीं रह सकते जिस प्रकार सूखी दीवार पर धूल चिपकती नहीं, केवल उसका स्पर्श कर अलग हो जाती है; उसी प्रकार आत्मा में कषाय की स्निग्धता के अभाव में कर्मपरमाणु उससे संबद्ध नहीं हो सकते। संबद्ध न होने के कारण उनका अनुभाग अथवा विपाक भी नहीं हो सकता । योग दर्शन में भी क्लेशरहित योगी के कर्म को अशुक्ला
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org