Book Title: Atmamimansa
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 124
________________ ( ११५ ) भी मन को ही कर्म का प्रधान कारण मानते हैं। उपालि सुत्त में बौद्धों के इस मन्तव्य का स्पष्ट उल्लेख है। धम्मपद की निम्न लिखित प्रथम गाथा से भी इसी मत की पुष्टि होती है : 'मनोपुव्वंगमा धम्मा मनोसेट्ठा मनोमया । मनसा चे पदुद्वेन भासति वा करोति वा । ततो नं दुक्खमन्वेति चक्कं व वहतो पदं ।' ऐसी वस्तुस्थिति में भी बौद्ध टीकाकारों ने हिंसा-अहिंसा की विचारणा करते हुए आगे जाकर जो विवेचन किया, उसमें मन के अतिरिक्त अन्य अनेक बातों का समावेश कर दिया, अतः इस मूल मन्तव्य के विषय में उनका अन्य दार्शनिकों के साथ जो एकमत था, वह स्थिर नहीं रह सका। कर्मफल का क्षेत्र कर्म के नियम की मर्यादा क्या है ? अर्थात् यहां इस बात पर विचार करना भी आवश्यक है कि जीव और जड़ रूप दोनों प्रकार की सृष्टि में कर्म का नियम संपूर्णतः लागू होता है अथवा उसकी कोई मर्यादा है ? काल, ईश्वर, स्वभाव आदि में से एक मात्र को कारण मानने वाले जिस प्रकार समस्त कार्यों में काल या ईश्वरादि को कारण मानते हैं, उसी प्रकार क्या कर्म भी सभी कार्यों की उत्पत्ति में कारणरूप है अथवा उसकी कोई सीमा है ? जो वादी केवल एक चेतन तत्त्व से सृष्टि की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं, उनके मत में कर्म, अदृष्ट अथवा माया समस्त कार्यों में साधारण ' विनय की अट्ठकथा में प्राणातिपात संबंधी विचार देखें । बौद्धों का यह वाक्य भी विचारणीय है : "प्राणी, प्राणीज्ञानं घातकचित्तं च तद्गता चेष्टा। प्राणैश्च विप्रयोगः पञ्चभिरापद्यते हिंसा ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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