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( ११२ ) विशुद्धि मार्ग में समान रूप से कृत्य की दृष्टि से चार, पाकदान की दृष्टि से चार और पाककाल की दृष्टि से चार इस प्रकार बारह प्रकार के कर्म का वर्णन है। किन्तु अभिधर्म में पाकस्थान की दृष्टि से चार भेद अधिक प्रतिपादित किए गए हैं। योगदर्शन में भी इन दृष्टियों के आधार पर कम संबंधी सामान्य विचारणा है किंतु गणना बौद्धों से भिन्न है। इन सब बातों के होते हुए भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि एक प्रकार से नहीं अपितु अनेक प्रकार से कर्मों के भेद का व्यवस्थित वर्गीकरण जैसा जैन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। ___ जैनशास्त्रों में कर्म की प्रकृति अथवा स्वभाव की दृष्टि से कर्म के आठ मूल भेदों का वर्णन है :-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। इन आठ मूल भेदों की अनेक उत्तर प्रकृतियों का विविध जीवों की अपेक्षा से विविध प्रकारेण निरूपण भी वहां उपलब्ध होता है। बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि की दृष्टि से किस जीव में कितने कर्म हैं, उनका वर्गीकृत व्यवस्थित प्रतिपादन भी वहां दृष्टिगोचर होता है। यहां इन सब बातों का विस्तार अनावश्यक है। जिज्ञासु उसे अन्यत्र देख सकते हैं।' कर्मबंध का प्रबल कारण ___ योग और कषाय दोनों ही कर्म बंधन के कारण गिने गए हैं किंतु इन दोनों में प्रबल कारण कषाय ही है। यह एक सर्व
१ अभिधम्मत्थ संग्रह ५.१९ विसुद्धिमग्ग १९. १४-१६. इन भेदों . की चर्चा आगे की जाएगी।
२ योगसूत्र २. १२–१४. । ३ कर्मग्रंथ १-६; गोमट्टसार-कर्मकांड
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