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( १०५ ) में। इसी प्रकार जैनों के मत में रागादि भाव पुद्गल कृत ही हैं, कार्मण शरीर भी पुद्गलकृत है। परन्तु इन दोनों में मौलिक भेद है। भावों का उपादान कारण आत्मा है और निमित्त पुद्गल जब कि कार्मण शरीर का उपादान पुद्गल है और निमित्त आत्मा। सांख्य मत में प्रकृति अचेतन होते हुए भी पुरुष ससंर्ग के कारण चेतन के समान व्यवहार करती है। इसी प्रकार जैनमत में पुद्गल द्रव्य अचेतन होकर भी जब आत्मससंग से कर्मरूप में परिणत होता है तब चेतन के सदृश ही व्यवहार करता है। जैनों ने संसारी आत्मा और शरीर आदि जड़ पदार्थों का ऐक्य क्षीरनीर तुल्य स्वीकार किया है। इसी प्रकार सांख्यों ने पुरुष एवं शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि आदि जड़ पदार्थों का ऐक्य क्षीरनीर के समान ही माना है।
जैन सम्मत भाव कर्म की तुलना सांख्य सम्मत भावों से, योग की तुलना वृत्ति से, और द्रव्यकर्म अथवा कार्मण शरीर की तुलना लिंग शरीर से की जा सकती है। जैन तथा सांख्य दोनों ही कर्मफल अथवा कर्म निष्पत्ति में ईश्वर जैसे किसी कारण को स्वीकार नहीं करते।
जैन मतानुसार आत्मा वस्तुतः मनुष्य, पशु, देव, नारक इत्यादि रूप नहीं है, प्रत्युत आत्माधिष्ठित कार्मण शरीर भिन्न भिन्न स्थानों में जाकर मनुष्य, देव, नारक इत्यादि रूपों का निर्माण करता है। सांख्य मत में भी लिंग शरीर पुरुषाधिष्ठित होकर मनुष्य, देव, तिर्यञ्च रूप भूतसर्ग का निर्माण करता है।"
* माठर वृत्ति पृ० ९, १४, ३३ । २ माठर वृत्ति पृ० २९, का० १७ । 3 सांख्य का० ४० ४ सांख्य का० २८, २९, ३० । ५ माठर का० ४०, ४४, ५३ ।
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