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( ७५ ) बौद्धों ने इस प्रभ का निराकरण दूसरे प्रकार से किया है। उन के मत में जीव या पुद्गल कोई शाश्वत द्रव्य नहीं । अतः वे पुनर्जन्म के समय एक जीव का अन्यत्र गमन नहीं मानते, किंतु वे एक स्थान में एक चित्त का निरोध और उसकी अपेक्षा से अन्यत्र नए चित्त की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इसी सिद्धांत के अनुरूप मुक्तचित्त के विषय में भी सिद्धान्त निश्चित किया जाए ।
राजा मिलिन्द ने प्राचार्य नागसेन से पूछा कि पूर्वादि दिशाओं में ऐसा कौनसा स्थान है जिस के निकट निर्वाण की स्थिति है। प्राचार्य ने उत्तर दिया कि निर्वाणस्थान कहीं किसी दिशा में अवस्थित नहीं जहाँ जाकर मुक्तात्मा निवास करे। तो फिर निर्वाण कहाँ प्राप्त होता है ? जिस प्रकार समुद्र में रत्न, फूल में गंध, खेत में धान्य आदि का स्थान नियत है, उसी प्रकार निर्वाण का भी कोई निश्चित स्थान होना चाहिए। यदि उसका कोई ऐसा स्थान नहीं है तो फिर यह क्यों नहीं कहते कि निर्वाण भी नहीं है ? इस आक्षेप का उत्तर देते हुए नागसेन ने कहा कि निर्वाण का कोई नियत स्थान न होने पर भी उसकी सत्ता है। निर्वाण कहीं बाहर नहीं है, अपने विशुद्ध मन से इसका साक्षात्कार करना पड़ता है। यदि कोई यह प्रश्न करे कि जलने से पहले अग्नि कहां है, तो उसे अग्नि का स्थान नहीं बताया जा सकता। किन्तु जब दो लकड़ियां मिलती हैं तब अग्नि प्रकट होती है। उसी प्रकार विशुद्ध मन से निर्वाण का साक्षात्कार हो सकता है किंतु उसका स्थान बताना शक्य नहीं। यदि यह मान भी लिया जाए कि निर्वाण का नियत स्थान नहीं है, तो भी ऐसा कोई निश्चित स्थान अवश्य होना चाहिए जहाँ अवस्थित रह कर पुद्गल निर्वाण का साक्षात्कार कर सके। इस प्रश्न के
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