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(८८ ) रूप कोई कारण नहीं, यह बात स्वभाववादी कहा करते थे। बुद्ध चरित में स्वभाववाद का निम्न उल्लेख है :___ "कौन काँटे को तीक्ष्ण करता है ? अथवा पशु पक्षियों की विचित्रता क्यों है ? इन सब बातों की प्रवृत्ति स्वभाव के कारण ही है। इसमें किसी की इच्छा अथवा प्रयत्न का अवकाश ही नहीं है। गीता और महाभारत में भी स्वभाववाद का उल्लेख है ।। माठर और न्यायकुसुमांजलिकार ने स्वभाववाद का खंडन किया है और अन्य अनेक दार्शनिकों ने भी स्वभाववाद का निषेध किया है। विशेषावश्यक में भी अनेक बार इस वाद का निराकरण किया गया है। यदृच्छावाद
श्वेताश्वतर में यहच्छावाद को कारण मानने वालों का भी उल्लेख है। इससे विदित होता है कि यह वाद भी प्राचीन काल से प्रचलित था। इस वाद का मन्तव्य यह है कि किसी भी नियत कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति हो जाती है। यदृच्छा शब्द का अर्थ अकस्मात्' है, अर्थात् किसी भी कारण के बिना ।
'बुद्ध चरित ५२। २ गीता ५. १४; महाभारत शांति पर्व २५. १६ । . माठर वृत्ति का० ६१; न्याय कुसुमांजलि १. ५ । ४ स्वभाववादके बोधक निम्न श्लोक सर्वत्र प्रसिद्ध हैं :
'नित्यसत्त्वा भवन्त्यन्ये नित्यासत्त्वाश्च केचन । विचित्राः केचिदित्यत्र तत्स्वभावो नियामकः ।।. अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तथानिल: ।
केनेदं चित्रितंतस्मात् स्वभावात् तद्व्यवस्थितिः ।। * न्यायभाष्य ३.२.३१ ।
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