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(६४ ) शंकाओं का ही निवारण नहीं हुआ है। वे स्वयं अज्ञानी हैं और अज्ञजनों में मिथ्या प्रचार करते हैं।' कालादि का समन्वय
जिस प्रकार वैदिक दार्शनिकों ने वैदिक परंपरा सम्मत यज्ञकर्म और देवाधिदेव के साथ पूर्वोक्त प्रकार से कर्म का समन्वय किया, उसी प्रकार जैनाचार्यों ने जैनपरंपरा के दार्शनिक काल में कर्म के साथ कालादि कारणों के समन्वय करने का प्रयत्न किया। किसी भी कार्य की उत्पत्ति केवल एक ही कारण पर आश्रित नहीं, परन्तु उसका आधार कारण सामग्री पर है। इस सिद्धांत के बल पर जैनाचार्यों ने कहा कि केवल कर्म ही कारण नहीं है, कालादि भी सहकारी कारण हैं। इस प्रकार सामग्रीवाद के आधार पर कर्म और कालादि का समन्वय हुआ।
जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इस बात को मिथ्या धारणा माना है कि काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृतकर्म और पुरुषार्थ इन पांच कारणों में किसी एक को ही कारण माना जाय और शेष कारणों की अवहेलना की जाए। उनके मतानुसार सम्यक् धारणा यह है कि कार्य निष्पत्ति में उक्त पांचों कारणों का समन्वय किया जाए ।२ आचार्य हरिभद्र ने भी शास्त्रवार्तासमुच्चय में इसी बात का समर्थन किया है। इससे ज्ञात होता है कि जैन भी
१ सूत्रकृतांग १. १२. २, महावीर स्वामिनो संयम धर्म (गु०) पृ० । १३५, सूज्ञकृतांग चूणि पृ० २५५. इसका विशेष वर्णन Creative Period में देखें-पृ० ४५४ ।। २ कालो सहाव णियई पुव्वकम्म पुरिसकारणेगंता ।
मिच्छत्तं तं चेव उ समासओ हुँति सम्मत्तं ॥ ३ शास्त्रवार्ता० २.७९-८० ।
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